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इश्क ही सअ़ई मेरी, इश्क ही हासिल मेरा{{KKGlobal}}{{KKRachna|रचनाकार=असग़र गोण्डवी|संग्रह= }}[[Category:ग़ज़ल]]<poem>
इश्क ही सअ़ई मेरी, इश्क ही हासिल मेरा
यही मंज़िल है, यही जाद-ए-मंज़िल मेरा।
 
दैर-ओ-हरम भी कूचए-जानाँ में आए थे।
 
पर शुक्र है कि बढ़ गए दामन बचा के हम॥
 
नियाज़े-इश्क़ को समझा है क्या ऐ वाइज़े-नादाँ।
 
हज़ारों बन गए काबे, जहाँ मैंने जबी रख दी॥
 
क्या दर्दे-हिज्र और यह क्या लज़्ज़ते-विसाल।
 
उससे भी कुछ बुलंद मिली है नज़र मुझे॥
 
अब न यह मेरी ज़ात है, अब न यह कायनात है।
 
मैंने नवाये-इश्क को साज़ से यूँ मिला दिया॥
 
 
मेरे मज़ाके़-शौक़ का इसमें भरा है रंग।
 
मैं खुद को देखता हूँ, कि तस्वीरे-यार को॥
 
 
खिलते ही बाग में पज़मुर्दा<ref>कुम्हलाने लगे</ref> हो चले।
 
जुम्बिश रंगे-बहार में मौजे-फ़ना की है॥
 
 
बुलबुलो-गुल में जो गुज़री हमको उससे क्या गरज़।
 
हम तो गुलशन में फ़क़त, रंगेचमन देखा किए॥
 
जानते हैं वो अदायें इस दिले-बेताब की।
 
उनसे बढ़कर कौन होगा, नुक्तादाने-इज़्तराब<ref>बेचैनी को समझनेवाला</ref>॥
 
नासेह मुश्फ़िक़!<ref>हितैशी उपदेशक</ref> मगर यूँ ही तड़पने दे मुझे।
 
मुझ को भी मालूम है, सूदो-ज़ियाने-इज़्तराब<ref>बेचैनी का हानी-लाभ</ref>॥
 
 
 
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