"भूख बरक्स भूख / श्रीनिवास श्रीकांत" के अवतरणों में अंतर
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21:59, 21 अगस्त 2009 का अवतरण
<poemनिचोड़ दिन की डूब गया सूरज कॉरीडोर, सीढ़ियाँ उतरता उगाता सन्नाटे में भूख़ की लतरें रौंदने लगे जिस्मों को ज्यों अंधेरा कॉकटेल,मद,प्यालियों झलकते रंगों के बीच
सर्प है अंधेरा होता एक साथ नुमाया बीमार घरों पिघलते जिस्मों रक्सगाहों में बेबाक
मंजर-दर-मंजर पलटता पाँसे पढता गोपनीय दस्तावेज़ जोड़-घटाव कार्य-कारण और आदमी से आदमी तक खिंचे रबर क्षणों की औसत लम्बाई एक कुरेद है भूख जिस्म में जैसे जज़्ब होती मछली काँच में उतरती आँख का फ़रेब या गिरिफ़्त
है मग़र वह भी तो भूख़ उगती फफूँद-सी जो सीली दीवारों पर घुटनों के बल कच्चे फर्शों रेंगती अपाहिज
छ्छूँदर की तरह जहाँ फुदकता है अँधेरा देता पहरा सन्नाटे का सतर्क चौकीदार
जिस्म जानवर है जिस्म है अँधेरा जिस्म है भूख़ पहचान का न टूटने वाला क्रम
बस्तियों की चौसर पर है गलियों के मुहाने मुहानों पर चालबाज़ गोटें साँप-सीढ़ियों के करतब नमुराद
जूझता भेदों से असफल बस्तियों का अंधापन
गाँठे हैं असहनीय बस्तियाँ ये छातियाँ धरती की धँसी हुई अँधा पाताल ज्यों कपाल का आहत भेड़-मुख रिसता रक्त जिस्म मगर मन से विरक्त
नहीं है सूरज फ़रेब न जासूस है अँधेरा जिस्म का करिश्मा है ज़हन का तिलिस्म
ढलने के बाद भी मरु में ज्यों दिख़ता रहे सूरज पश्चिम लगे पूरब या जादू अनंत का दूर-दूर भागता हुआ कॉरीडोर या समीप होने का फैलता हुआ भ्रम </poem>