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"आदमी-२ / सरोज परमार" के अवतरणों में अंतर

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03:44, 22 अगस्त 2009 के समय का अवतरण

सुविधाओं के ऑक्टोपस की लिजलिजी
गिरफ्त में मस्त्
हम व्यस्त होने का कितना दम्भ भरते हैं
पर राग बनने के लिए चोट सहने का दम
हमनें नहीं ।

न ही मसीहा बनने के लिए कील
ठुकवाने की उमंग ही रह गई है।
हाँ आबादी का शोर बहुत सुनाते हैं ।
पर आदमी...........................?
शायद तिलचट्टे सा किसी चौराहे पर
धूल से लिथड़ा,अधमरा सा सिसक रहा होगा।
दर्द की किरचों पर चलता आदमी
सुकून पाता ऐ
अन्धेरे,सीलन भरे चाय के खोखे में
(अभिजात्य ब्राडवेज, सेवन स्टार की बात कर) ।
मन का गुबार निकालने के लिए
दूसरे महकमों को तब तक गाली देता है
जब तक उसका अपना बौनापन झलक
नहीं जाता ।
या
बीवी बच्चों से लड़ता-झगड़ता है
उपदेश की डोज़ पिलाता है।
या
रेशम के कीड़े की तरह
एक मौन ओढ लेता है
ओर सहते सहते घुटते घुटते
दम तोड़ देता है ।
मुझे लगता है
ज़िन्दगी को तलाशने
आदमी के हाथ कफन आ गया हो
या
वह तंदूर में जा गिरा हो
जहाँ कफन की भी ज़रूरत नहीं ।
लगता है
ज़िन्दा बनाए रखने की अपनी ज़िम्मेवारी
अब से ख़त्म हुई, हाँ ख़त्म हुई।