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क्षणिकायें / हरकीरत हकीर

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<Poem>
1
'''जख्मज़ख्म'''
रात आसमां ने आंगन में अर्थी सजाई
तारे रात भर खोदते रहे कब्र
हवाओं ने भी छाती पीटी
पर मेरे जख्मों ज़ख्मों की
मौत न हुई...
फिर सिसक उठी है टीस
तेरे झुलसे शब्द
जख्मो ज़ख्मों को
जाने और कितना
रुलायेंगेरुलाएंगे...
4
'''वज़ह'''
कुछ खामोशी को था स्वाभिमान
कुछ लफ्जों लफ्ज़ों को अपना गरूर
दोनों का परस्पर ये मौन
दूरियों की वज़ह
7
 
'''गिला'''
गिला इस बात का न था
चंद रोज हँस पडे़ थे
खिलखिलाकर
जख्मज़ख्म...
9
'''किस उम्मीद में...'''
किस उम्मीद में जिये जा रही है शमां...?
अब तो रौशनी रोशनी भी बुझने लगी है तेरी
दस्तक दे रहे हैं अंधेरे किवाड़ों पर
और तू है के हँस-हँस के जले जा रही है...
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