पथ मेरा रहे प्रशस्त सदा क्यों विकल करे यह चाह मुझे ?<br>
नेतृत्व न मेरा छिन जावे क्यों इसकी हो परवाह मुझे ?<br>
मैं प्रस्तुत हूं हूँ चाहे मेरी मिट्टी जनपद की धूल बने-<br>
फिर उस धूली का कण-कण भी मेरा गति-रोधक शूल बने !<br><br>
मैंने विदग्ध हो जान लिया, अन्तिम रहस्य पहचान लिया-<br>
मैंने आहुति बन कर देखा यह प्रेम यज्ञ की ज्वाला है !<br>
मैं कहता हूंहूँ, मैं बढ़ता हूंहूँ, मैं नभ की चोटी चढ़ता हूंहूँ<br>कुचला जाकर भी धूली-सा आंधी सा और उमड़ता हूंहूँ<br><br>
मेरा जीवन ललकार बने, असफलता ही असि-धार बने<br>