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नया कवि / गिरिजाकुमार माथुर

2,785 bytes removed, 18:59, 13 सितम्बर 2009
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लाल पत्थर लाल मिट्टी लाल कंकड़ लाल बजरी जो अंधेरी रात में भभके अचानकलाल फूले ढाक के वन डाँग गाती फाग कजरी चमक से चकचौंध भर देमैं निरंतर पास आता अग्निध्वज हूँ
सनसनाती साँझ सूनी वायु का कंठला खनकता कड़कड़ाएँ रीढ़ झींगुरों बूढ़ी रूढ़ियों की खंजड़ी पर झाँझ-सा बीहड़ झनकता झुर्रियाँ काँपें घुनी अनुभूतियों कीउसी नई आवाज़ की उठती गरज हूँ।
कंटकित बेरी करौंदे महकते हैं झाब झोरे जब उलझ जाएँ सुन्न हैं सागौन वन के कान जैसे पात चौड़े मनस गाँठें घनेरीबोध की हो जाएँ सब गलियाँ अंधेरीतर्क और विवेक परबेसूझ जालेमढ़ चुके जब वैर रत परिपाटियों कीअस्मि ढेरी
ढूह, टीले, टोरियों पर धूप-सूखी घास भूरी जब न युग के पास रहे उपाय तीजाहाड़ टूटे देह कुबड़ी चुप पड़ी है देह बूढ़ी तब अछूती मंज़िलों की ओर मैं उठता कदम हूँ।
ताड़, तेंदू, नीम, रेंजर चित्र लिखी खजूर पाँतें जब कि समझौता छाँह मंदी डाल जिन पर ऊँघती हैं शुक्ल रातें जीने की निपट अनिवार्यता होपरम अस्वीकार की झुकने न वाली मैं कसम हूँ।
बीच सूने में बनैले ताल का फैला अतल जल हो चुके हैं थे कभी आए यहाँ पर छोड़ दमयंती दुखी नल सभी प्रश्नों के सभी उत्तर पुरानेखोखले हैंव्यक्ति और समूह वालेआत्मविज्ञापित ख़जानेपड़ गए झूठे समन्वय रह न सका तटस्थ कोई वे सुरक्षा की नक़ाबें मार्ग मध्यम के बहानेहूँ प्रताड़ित क्योंकि प्रश्नों के नए उत्तर दिए हैंहै परम अपराध क्योंकि मैं लीक से इतना अलग हूँ।
भूख व्याकुल ताल से ले मछलियाँ थीं जो पकाईं सब छिपाते थे सच्चाई शाप के कारण जली जब तुरत ही वे उछल जल में समाईं सिद्धियों सेअसलियत को स्थगित करतेहै तभी भाग जाते उत्तरों से साँवली सुनसान जंगल की किनारी हैं तभी से ताल की सब मछलियाँ मनहूस काली कला थी सुविधा परस्तीमूल्य केवल मस्लहत थेपूर्व से उठ चाँद आधा स्याह जल में चमचमाता मूर्ख थी निष्ठाबनचमेली की जड़ों प्रतिष्ठा सुलभ थी आडम्बरों से नाग कसकर लिपट जाता क्या करूँ कोस भर तक केवड़े का है गसा गुंजान जंगल उन कँटीली झाड़ियों में उलझ जाता चाँद चंचल  चाँदनी उपलब्धि की रैन चिड़िया गंध कलियों पर उतरती जो सहज तीखी आँच मुझमें मूँद लेती नैन गोरे पाँख धीरे बंद करती क्या करूँ  गंध घोड़े पर चढ़ी दुलकी चली आती हवाएँ टाप हल्के पड़ें जल में गोल लहरें उछल आएँ  सो रहा बन ढूह सोते ताल सोता तीर सोते प्रेतवाले पेड़ सोते सात तल के नीर सोते  ऊँघती है रूँध करवट ले रही है घास ऊँची मौन दम साधे पड़ी है टोरियों की रास ऊँची  साँस लेता है बियाबां डोल जातीं सुन्न छाँहें हर तरफ गुपचुप खड़ी हैं जनपदों की आत्माएँ  ताल की है पार ऊँची उतर गलियारा गया है नीम, कंजी, इमलियों में निकल बंजारा गया है  बीच पेड़ों की कटन में हैं पड़े दो चार छप्पर हाँडियाँ, मचिया, कठौते लट्ठ, गूदड़, बैल, बक्खर  राख, गोबर, चरी, औंगन लेज, रस्सी, हल, कुल्हाड़ी सूत की मोटी फतोही चका, हँसिया और गाड़ी  धुआँ कंडों का सुलगता भौंकता कुत्ता शिकार है यहाँ की जिंदगी पर शाप नल का स्याह भारी  भूख की मनहूस छाया जब कि भोजन सामने हो आदमी हो ठीकरे-सा जबकि साधन सामने हो  धन वनस्पति भरे जंगल और यह जीवन भिखरी शाप नल का घूमता है भोथरे हैं हल-कुल्हाड़ी  हल कि जिसकी नोक से बेजान मिट्टी झूम उठती सभ्यता का चाँद खिलता जंगलों की रात मिटती  आइनों से गाँव होते घर न रहते धूल कूड़ा जम न जाता ज़िंदगी पर युगों का इतिहास-घूरा  मृत्यु-सा सुनसान बनकर जो बनैला प्रेत फिरता खाद बन जीवन फसल की लोक मंगल रूप धरता  रंग मिट्टी का बदलता नीर का सब पाप धुलता हरे होते पीत ऊसर स्वस्थ हो जाती मनुजता  लाल पत्थर, लाल मिट्टी लाल कंकड़, लाल बजरी शम्भु धनु टूटा तुम्हाराफिर खिलेंगे झाक के वन फिर उठेगी फाग कजरी।तोड़ने को मैं विवश हूँ।
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