"पहला मानसून / तरुण भटनागर" के अवतरणों में अंतर
(नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=तरुण भटनागर }} <poem> १ उसका इंतजार था। हमारी इच्छा, ...) |
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) |
||
पंक्ति 5: | पंक्ति 5: | ||
<poem> | <poem> | ||
− | + | '''1 | |
− | उसका | + | उसका इंतज़ार था। |
हमारी इच्छा, | हमारी इच्छा, | ||
− | हमारा | + | हमारा स्वार्थ, |
− | सो किया उसका | + | सो किया उसका इंतज़ार। |
− | पर | + | पर हज़ारों मील दूर से, |
− | + | समुद्र की नम आर्द्र हवा, | |
काले घने बादल, | काले घने बादल, | ||
चक्रवात, | चक्रवात, | ||
घूमते बवण्डर, | घूमते बवण्डर, | ||
वह कभी भी इसलिए नहीं लाया, | वह कभी भी इसलिए नहीं लाया, | ||
− | कि हम उसका | + | कि हम उसका इंतज़ार करते हैं। |
बस एक नियम है, | बस एक नियम है, | ||
मानसून के आने का नियम। | मानसून के आने का नियम। | ||
वह नहीं आता है, | वह नहीं आता है, | ||
− | + | गर्मी से झुलसे पेड़ों के लिए, | |
महीनों से चुप आंगन की टीन की छत के लिए, | महीनों से चुप आंगन की टीन की छत के लिए, | ||
धूल में पड़े बीजों के लिए, | धूल में पड़े बीजों के लिए, | ||
− | आकाश की | + | आकाश की ओर मुँह कर, |
− | + | बूंदों के स्पर्श से खिलखिलाने वाले चेहरों के लिए, | |
घर की नंगी दीवार के लिए, | घर की नंगी दीवार के लिए, | ||
जो उसे देख हड़बड़ाती हुई काही की साड़ी पहन लेती है, | जो उसे देख हड़बड़ाती हुई काही की साड़ी पहन लेती है, | ||
− | + | 000 | |
अगर वह इनके लिए आता, | अगर वह इनके लिए आता, | ||
पंक्ति 38: | पंक्ति 38: | ||
धरती आकाश, | धरती आकाश, | ||
किसी का भी साथी नहीं। | किसी का भी साथी नहीं। | ||
− | वह बरसकर | + | वह बरसकर ख़त्म हो जायेगा, |
− | बिना किसी हिसाब किताब के, | + | बिना किसी हिसाब-किताब के, |
− | + | क्योंकि ऐसा ही नियम है। | |
− | + | '''2 | |
− | मैंने बहुत | + | मैंने बहुत लम्बी यात्रा की है। |
− | बंबई से जयपुर, फिर दिल्ली, फिर | + | बंबई से जयपुर, फिर दिल्ली, फिर झाँसी, फिर कलकत्ता... |
− | + | और वह बादल, | |
पूरे समय मेरे साथ रहा है। | पूरे समय मेरे साथ रहा है। | ||
− | एक सा फुरफुराता, | + | एक-सा फुरफुराता, |
− | एक सा बरसता, गरजता | + | एक-सा बरसता, गरजता...। |
देखने का दोष नहीं है, | देखने का दोष नहीं है, | ||
− | वह वास्तव में एक सा रहता है। | + | वह वास्तव में एक-सा रहता है। |
वह भेद नहीं कर पाया है - | वह भेद नहीं कर पाया है - | ||
− | गंगा | + | गंगा और सीक्यांग में, |
− | हिन्दी, | + | हिन्दी, तमिल... और फिलीपीनो में, |
− | दिल्ली | + | दिल्ली और हांगकांग में, |
− | + | नार्डिक और मंगोलाइट में, | |
− | कुतार् | + | कुतार् और बाली के खुले वक्षों में, |
− | सेण्ट थामस माउंड | + | सेण्ट थामस माउंड और अंकोरवाट के शिव में, |
− | नंगे | + | नंगे ओंग, जावा और सिंगापुर के सभ्य सुसंस्कृत में, |
− | मुझमें | + | मुझमें और रिजया की बकरी में, |
− | हरी घास | + | हरी घास और सूखे पत्तों में, |
− | + | ..... | |
वह बहुत आगे निकल गया है, | वह बहुत आगे निकल गया है, | ||
बहुत आगे, | बहुत आगे, | ||
− | + | जहाँ हम नहीं...। | |
तभी तो, | तभी तो, | ||
− | बम्बई, जयपुर, दिल्ली, | + | बम्बई, जयपुर, दिल्ली, झाँसी, कलकत्ता तक, |
मैं उसे पछाड़ नहीं पाया। | मैं उसे पछाड़ नहीं पाया। | ||
शायद, | शायद, | ||
पूरी धरती, | पूरी धरती, | ||
− | + | और पूरे आकाश की, | |
यात्रा करने के बाद भी, | यात्रा करने के बाद भी, | ||
मैं उसे पछाड नहीं पाता। | मैं उसे पछाड नहीं पाता। | ||
− | + | '''3 | |
वह काला बादल, | वह काला बादल, | ||
पंक्ति 83: | पंक्ति 83: | ||
कड़वा अधूरा मूड, | कड़वा अधूरा मूड, | ||
पुराना दृश्य, | पुराना दृश्य, | ||
− | पूरी | + | पूरी ज़मीन, |
अंधेरे में कानों में कहलवा सकता है, | अंधेरे में कानों में कहलवा सकता है, | ||
बहुत दिनों से दबी बात, | बहुत दिनों से दबी बात, | ||
− | + | .......... | |
पर कुछ नहीं कर पाता है, | पर कुछ नहीं कर पाता है, | ||
− | आकाश | + | आकाश और चांद-तारों का, |
− | बस उन्हें | + | बस उन्हें ढँक देता है। |
− | + | ढँक देता है, | |
− | बरसों से जागते चांद तारों को, | + | बरसों से जागते चांद-तारों को, |
हमेशा व्यस्त आकाश को। | हमेशा व्यस्त आकाश को। | ||
− | ताकि उकसाये | + | ताकि उकसाये ढँकी चांदनी, |
− | क्या होती कल से ज्यादा | + | क्या होती कल से ज्यादा चमकीली? |
क्या हमेशा की तरह ठण्डी? | क्या हमेशा की तरह ठण्डी? | ||
− | क्या उसमें | + | क्या उसमें ज़्यादा चमकते वरबीना के फूल? |
− | + | ..... | |
− | ताकि दिख ना | + | ताकि दिख ना पाए, |
मनचाहा आकाश, | मनचाहा आकाश, | ||
− | + | और वे चांद-तारे, | |
जो मुझे घसीटते हैं, | जो मुझे घसीटते हैं, | ||
मेरी यादों में। | मेरी यादों में। | ||
− | + | यूँ, | |
वह मुझे, | वह मुझे, | ||
बार-बार बचाता है। | बार-बार बचाता है। | ||
− | + | '''4 | |
− | वह | + | वह समुद्र से आता है, |
− | + | ज़मीन के लिए। | |
वह बहुत ऊपर तैरता है, | वह बहुत ऊपर तैरता है, | ||
नीचे के लिए। | नीचे के लिए। | ||
वह दूर दिखता है, | वह दूर दिखता है, | ||
− | हथेली पर गिरती | + | हथेली पर गिरती बूंदों के लिए। |
− | वह | + | वह ख़ूब गरजता है, |
भीतर की चुप्पी के लिए। | भीतर की चुप्पी के लिए। | ||
वह ठण्डा है, | वह ठण्डा है, | ||
चंपा को भिगोकर आग के लिए। | चंपा को भिगोकर आग के लिए। | ||
− | वह सूरज को | + | वह सूरज को ढंक देता है, |
मेरे कमरे की ठण्ड के लिए। | मेरे कमरे की ठण्ड के लिए। | ||
वह दूर चमकता है, | वह दूर चमकता है, | ||
हाथ को हाथ सुझाने के लिए। | हाथ को हाथ सुझाने के लिए। | ||
</poem> | </poem> |
20:31, 14 सितम्बर 2009 के समय का अवतरण
1
उसका इंतज़ार था।
हमारी इच्छा,
हमारा स्वार्थ,
सो किया उसका इंतज़ार।
पर हज़ारों मील दूर से,
समुद्र की नम आर्द्र हवा,
काले घने बादल,
चक्रवात,
घूमते बवण्डर,
वह कभी भी इसलिए नहीं लाया,
कि हम उसका इंतज़ार करते हैं।
बस एक नियम है,
मानसून के आने का नियम।
वह नहीं आता है,
गर्मी से झुलसे पेड़ों के लिए,
महीनों से चुप आंगन की टीन की छत के लिए,
धूल में पड़े बीजों के लिए,
आकाश की ओर मुँह कर,
बूंदों के स्पर्श से खिलखिलाने वाले चेहरों के लिए,
घर की नंगी दीवार के लिए,
जो उसे देख हड़बड़ाती हुई काही की साड़ी पहन लेती है,
000
अगर वह इनके लिए आता,
तो क्या वह कभी जा पाता?
उसका आना,
उसका जाना,
हमसे सरोकार बिना उसका अपना है।
वह,
धरती आकाश,
किसी का भी साथी नहीं।
वह बरसकर ख़त्म हो जायेगा,
बिना किसी हिसाब-किताब के,
क्योंकि ऐसा ही नियम है।
2
मैंने बहुत लम्बी यात्रा की है।
बंबई से जयपुर, फिर दिल्ली, फिर झाँसी, फिर कलकत्ता...
और वह बादल,
पूरे समय मेरे साथ रहा है।
एक-सा फुरफुराता,
एक-सा बरसता, गरजता...।
देखने का दोष नहीं है,
वह वास्तव में एक-सा रहता है।
वह भेद नहीं कर पाया है -
गंगा और सीक्यांग में,
हिन्दी, तमिल... और फिलीपीनो में,
दिल्ली और हांगकांग में,
नार्डिक और मंगोलाइट में,
कुतार् और बाली के खुले वक्षों में,
सेण्ट थामस माउंड और अंकोरवाट के शिव में,
नंगे ओंग, जावा और सिंगापुर के सभ्य सुसंस्कृत में,
मुझमें और रिजया की बकरी में,
हरी घास और सूखे पत्तों में,
.....
वह बहुत आगे निकल गया है,
बहुत आगे,
जहाँ हम नहीं...।
तभी तो,
बम्बई, जयपुर, दिल्ली, झाँसी, कलकत्ता तक,
मैं उसे पछाड़ नहीं पाया।
शायद,
पूरी धरती,
और पूरे आकाश की,
यात्रा करने के बाद भी,
मैं उसे पछाड नहीं पाता।
3
वह काला बादल,
बदल सकता है -
पूरी हवा,
कड़वा अधूरा मूड,
पुराना दृश्य,
पूरी ज़मीन,
अंधेरे में कानों में कहलवा सकता है,
बहुत दिनों से दबी बात,
..........
पर कुछ नहीं कर पाता है,
आकाश और चांद-तारों का,
बस उन्हें ढँक देता है।
ढँक देता है,
बरसों से जागते चांद-तारों को,
हमेशा व्यस्त आकाश को।
ताकि उकसाये ढँकी चांदनी,
क्या होती कल से ज्यादा चमकीली?
क्या हमेशा की तरह ठण्डी?
क्या उसमें ज़्यादा चमकते वरबीना के फूल?
.....
ताकि दिख ना पाए,
मनचाहा आकाश,
और वे चांद-तारे,
जो मुझे घसीटते हैं,
मेरी यादों में।
यूँ,
वह मुझे,
बार-बार बचाता है।
4
वह समुद्र से आता है,
ज़मीन के लिए।
वह बहुत ऊपर तैरता है,
नीचे के लिए।
वह दूर दिखता है,
हथेली पर गिरती बूंदों के लिए।
वह ख़ूब गरजता है,
भीतर की चुप्पी के लिए।
वह ठण्डा है,
चंपा को भिगोकर आग के लिए।
वह सूरज को ढंक देता है,
मेरे कमरे की ठण्ड के लिए।
वह दूर चमकता है,
हाथ को हाथ सुझाने के लिए।