भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
"सियाहियों के बने हर्फ़ हर्फ़ धोते हैं / बशीर बद्र" के अवतरणों में अंतर
Kavita Kosh से
Lalit Kumar (चर्चा | योगदान) |
(कोई अंतर नहीं)
|
04:08, 31 अक्टूबर 2006 का अवतरण
रचनाकार: बशीर बद्र
~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~
सियाहियों के बने हर्फ़ हर्फ़ धोते हैं
ये लोग रात में काग़ज़ कहाँ भिगोते हैं
किसी की शह में दहलीज़ पर दिया न रखो
किवाड़ सूखी हुई लकड़ियों के होते हैं
चराग़ पानी में मौजों से पूछते होंगे
वो कौन लोग हैं जो कश्तियाँ डुबोते हैं
क़दीम क़स्बों में क्या सुकून होता है
थके थकाये हमारे बुज़ुर्ग सोते हैं
चमकती है कहीं सदियों में आँसुओं की ज़मीं
ग़ज़ल के शेर कहाँ रोज़ रोज़ होते हैं