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तीन कवितायें / दीप्ति नवल

10 bytes added, 12:41, 17 सितम्बर 2009
<poem>
'''1.'''
मैंने देखा है दूर कहीं परबतों के पेड़ों पर
शाम जब चुपके से बसेरा कर ले
और बकिरयों का झुन्ड़ झंड लिए कोई चरवाहाकच्ची-कच्ची पगड़ंडि़यों पगडंडियों से होकर
पहाड़ के नीचे उतरता हो
 
मैंने देखा है जब ढलानों पे साए-से उमड़ने लगें
और नीचे घाटी में
वो अकेला-सा बरसाती चश्मा
छुपते सूरज को छू लेने के लिए भागे
 
हाँ, देखा है ऐसे में और सुना भी है
इन गहरी ठंडी वादियों में गूँजता हुआ कहीं पर
बाँसुरी का सुर कोई़...
 
तब
यूं यूँ ही किसी चोटी पर
देवदार के पेड़ के नीचे खड़े-खड़े
मैंने दिन को रात में बदलते हुए देखा है!
'''2.''' 
"बहुत घुटी-घुटी रहती हो...
बहुत से साल पीछे जाना होगा
और फिर वही से चलना होगा
जहाँ से काँधे कांधे पे बस्ता उठाकर
स्कूल जाना शुरू किया था
इस जहन को बदलकर
कोई नया जहन लगवाना होगा
और इस सबके बाद जिस रोजरोज़
खुलकर
खिलखिलाकर
ठहाका लगाकर
किसी बात पे जब हँसूँगीहँसूंगी
तब पहचानोगे क्या?
'''3'''  लोग एक ही नजर नज़र से देखते हैंऔरत और मर्द् मर्दके रिश्ते को
क्योंकि उसे नाम दे सकते हैं ना!
नामों से बँधेबंधे
बेचारे यह लोग!
</poem>
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