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|रचनाकार=अकबर इलाहाबादी
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जो यूं ही लहज़ा -लहज़ा दाग़-ए-हसरत की तरक़्क़ी है अजब क्या, रफ्ता -रफ्ता मैं सरापा सूरत-ए-दिल हूँ
मदद --रहनुमा-ए-गुमरहां इस दश्त-ए-गु़र्बत में
मुसाफ़िर हूँ, परीशाँ हाल हूँ, गु़मकर्दा मंज़िल हूँ
ये मेरे सामने शेख-ओ-बरहमन क्या झगड़ते हैं
अगर मुझ से कोई पूछे, कहूँ दोनों का क़ायल हूँ
 
अगर दावा-ए-यक रंगीं करूं, नाख़ुश न हो जाना
मैं इस आईनाखा़ने में तेरा अक्स-ए-मुक़ाबिल हूँ
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