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Kavita Kosh से
ज़िन्दगी तूनें तूने मुझे कब्र से कम दी है ज़मीं
पाँव फ़ैलाऊँ फैलाऊँ तो दीवार में सर लगता है ।
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वो ज़ाफ़रानी पुलोवर उसी का हिस्सा है
कोई जो दूसरा पहनें पहने तो दूसरा ही लगे ।
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लोग टूट जाते हैं एक घर बनानें बनाने में
तुम तरस नहीं खाते बस्तियाँ बस्तियां जलानें में।
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पलकें भी चमक जाती हैं सोते में हमारी,
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तमाम रिश्तों को मैं घर पे छोड़ आया था.
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मैं इतना बदमुआश नहीं यानि खुल के बैठ
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