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प्रेम के प्रति / सूर्यकांत त्रिपाठी "निराला"
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18:22, 7 अक्टूबर 2009
क्षीण बुद्धि-भ्रम में काया,
समझे दोनों, था न कभी वह
प्रेम,
प्रेम
की थी छाया।
प्रेम, सदा ही तुम असूत्र हो
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