भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
"जिन्स-ए-गिराँ थी ख़ूबी-ए-क़िस्मत नहीं मिली / शाहिद माहुली" के अवतरणों में अंतर
Kavita Kosh से
छो |
छो |
||
पंक्ति 8: | पंक्ति 8: | ||
बिकने को हम भी आये थे क़ीमत नहीं मिली | बिकने को हम भी आये थे क़ीमत नहीं मिली | ||
− | हंगाम-ए-रोज़-ओ- शब के | + | हंगाम-ए-रोज़-ओ-शब के मशागिल थे और भी |
− | + | कुछ कारोबार-ए-ज़ीस्त से फ़ुर्सत नहीं मिली | |
− | कुछ कारोबार-ए-ज़ीस्त | + | |
− | + | ||
− | + | ||
कुछ दूर हम भी साथ चले थे कि यूँ हुआ | कुछ दूर हम भी साथ चले थे कि यूँ हुआ | ||
− | कुछ मसअलों पे उनसे | + | कुछ मसअलों पे उनसे तबीयत नहीं मिली |
− | + | ||
− | इक | + | इक आँच थी कि जिससे सुलगता रहा वजूद |
− | + | ||
− | + | ||
शोला सा जाग उट्ठे वो शिद्दत नहीं मिली | शोला सा जाग उट्ठे वो शिद्दत नहीं मिली | ||
− | वो बेहिसी थी | + | वो बेहिसी थी ख़ुश्क हुआ सब्ज़ा-ए-उम्मीद |
− | + | ||
बरसे जो सुबह-ओ- शाम वो चाहत नहीं मिली | बरसे जो सुबह-ओ- शाम वो चाहत नहीं मिली | ||
08:08, 12 अक्टूबर 2009 के समय का अवतरण
जिन्स-ए-गिराँ थी ख़ूबी-ए-क़िस्मत नहीं मिली
बिकने को हम भी आये थे क़ीमत नहीं मिली
हंगाम-ए-रोज़-ओ-शब के मशागिल थे और भी
कुछ कारोबार-ए-ज़ीस्त से फ़ुर्सत नहीं मिली
कुछ दूर हम भी साथ चले थे कि यूँ हुआ
कुछ मसअलों पे उनसे तबीयत नहीं मिली
इक आँच थी कि जिससे सुलगता रहा वजूद
शोला सा जाग उट्ठे वो शिद्दत नहीं मिली
वो बेहिसी थी ख़ुश्क हुआ सब्ज़ा-ए-उम्मीद
बरसे जो सुबह-ओ- शाम वो चाहत नहीं मिली
ख़्वाहिश थी जुस्तजू भी थी दीवानगी न थी
सहरा-नवर्द बनके भी वहशत नहीं मिली
वह रोशनी थी साए भी तहलील हो गए
आईनाघर में अपनी भी सूरत नहीं मिली