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विजय / सुमित्रानंदन पंत

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'''उत्तरा नामक रचना से'''
'''उत्तरा नामक रचना से'''<br><br>मैं चिर श्रद्धा लेकर आई वह साध बनी प्रिय परिचय में, मैं भक्ति हृदय में भर लाई, वह प्रीति बनी उर परिणय में।
मैं चिर श्रद्धा लेकर आई<br>जिज्ञासा से था आकुल मन वह साध बनी प्रिय परिचय मेंमिटी,<br>हुई कब तन्मय मैं भक्ति हृदय में भर लाई,<br>वह प्रीति बनी उर परिणय में।<br><br>विश्वास माँगती थी प्रतिक्षण आधार पा गई निश्चय मैं !
जिज्ञासा से था आकुल मन<br>प्राणों की तृष्णा हुई लीन वह मिटी, हुई कब तन्मय मैं,<br>स्वप्नों के गोपन संचय में विश्वास माँगती थी प्रतिक्षण<br>संशय भय मोह विषाद हीन आधार पा गई निश्चय लज्जा करुणा में निर्भय मैं !<br><br>
प्राणों की तृष्णा हुई लीन<br>लज्जा जाने कब बनी मान, स्वप्नों के गोपन संचय अधिकार मिला कब अनुनय में<br>संशय भय मोह विषाद हीन<br>पूजन आराधन बने गान लज्जा करुणा में निर्भय कैसे, कब? करती विस्मय मैं !<br><br>
लज्जा जाने कब बनी मानउर करुणा के हित था कातर सम्मान पा गई अक्षय मैं,<br>अधिकार मिला कब अनुनय में<br>पापों अभिशापों की थी घर पूजन आराधन बने गान<br>कैसे, कब? करती विस्मय वरदान बनी मंगलमय मैं !<br><br>
उर करुणा के हित था कातर<br>सम्मान पा गई अक्षय मैं,<br>पापों अभिशापों की थी घर<br>वरदान बनी मंगलमय मैं !<br><br> बाधा-विरोध अनुकूल बने<br>अंतर्चेतन अरुणोदय में,<br>पथ भूल विहँस मृदु फूल बने<br>मैं विजयी प्रिय, तेरी जय में। <br><br/poem>
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