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|रचनाकार=रवीन्द्र दास
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<poem>
तुम्हारे चेहरे में कोई सपना था
जिसे बरसोबरसों-बरस मैंने मैं देखा किया
तुमने तो हर बार मेरा पागलपन कहा
पर, मैं बता दूँ साफ-साफ
कि कोई और सच होता नहीं इतना खुबसूरत खूबसूरत
जिसे छू सकूँ
और जी सकूँ अपनी आजाद सांसों आज़ाद साँसों के साथ ...
ओ मेरे सपने का सच!
और क्या होता है प्यार?
ख्वाहिश ख़्वाहिश के बगैर बग़ैर है जो जिंदगी ज़िंदगी
जहाँ न सपना है ,न तुम हो
उस जिन्दगी ज़िंदगी से भी मेरी तौबा है
जहाँ तुम्हारा चेहरा नहीं
मेरी साँसेसाँसें, तुम्हारा चेहरा और चेहरे से टपकता वो सपनो सपनों का नूर
मैं आज फ़ना हो जाऊँ
तो क़यामत तक खुशहाल रहूँगा
लेकिन,
वो इस तासीर को क्या खाक ख़ाक महसूस करेगा
जिसके नसीब में जन्नत के लिए भी किश्त भरना है
गोया कब आ जाए अफगान
वसूल करने अपना बकाया बक़ाया .......
क्यों नहीं ठहर जाता है वक्त
क्यों नहीं पत्थर हो जाता हूँ मैं
तुम्हारे चेहरे के आब से
भीगा भिगा देना मुझको
जो मैं हो गया पत्थर तुम्हारे प्यार में ।
</poem>