लेखिका: [[सुभद्राकुमारी चौहान]]{{KKGlobal}}[[Category:कविताएँ]]{{KKRachna[[Category:|रचनाकार=सुभद्राकुमारी चौहान]]}}{{KKCatKavita}}<poem>मृदुल कल्पना के चल पँखों पर हम तुम दोनों आसीन। भूल जगत के कोलाहल को रच लें अपनी सृष्टि नवीन।।
~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*वितत विजन के शांत प्रांत में कल्लोलिनी नदी के तीर। बनी हुई हो वहीं कहीं पर हम दोनों की पर्ण-कुटीर।।
मृदुल कल्पना के चल पँखों कुछ रूखा, सूखा खाकर ही पीतें हों सरिता का जल। पर हम तुम दोनों आसीन। <br>भूल न कुटिल आक्षेप जगत के कोलाहल को रच लें अपनी सृष्टि नवीन।। <br><br>करने आवें हमें विकल।।
वितत विजन के शांत प्रांत में कल्लोलिनी नदी के तीर। <br>बनी हुई हो वहीं कहीं पर सरल काव्य-सा सुंदर जीवन हम दोनों सानंद बिताते हों। तरु-दल की पर्णशीतल छाया में चल समीर-कुटीर।। <br><br>सा गाते हों।।
कुछ रूखा, सूखा खाकर ही पीतें हों सरिता के नीरव प्रवाह-सा बढ़ता हो अपना जीवन। का जल। <br>पर न कुटिल आक्षेप जगत के करने आवें हमें विकल।। <br><br>हो उसकी प्रत्येक लहर में अपना एक निरालापन।।
सरल काव्य-सा सुंदर जीवन हम सानंद बिताते हों। <br>रचे रुचिर रचनाएँ जग में अमर प्राण भरने वाली। तरु-दल की शीतल छाया में चल समीरदिशि-सा गाते हों।। <br><br>दिशि को अपनी लाली से अनुरंजित करने वाली।।
सरिता के नीरव प्रवाह-सा बढ़ता हो अपना जीवन। <br>हो उसकी प्रत्येक लहर में अपना एक निरालापन।। <br><br> रचे रुचिर रचनाएँ जग में अमर प्राण भरने वाली। <br>दिशि-दिशि को अपनी लाली से अनुरंजित करने वाली।। <br><br> तुम कविता के प्राण बनो मैं उन प्राणों की आकुल तान। <br> निर्जन वन को मुखरित कर दे प्रिय! अपना सम्मोहन गान।। <br><br/poem>