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|रचनाकार=सूरदास
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[[Category:पद]]
राग देश
<poem>
जोग ठगौरी ब्रज न बिकैहै।
 
यह ब्योपार तिहारो ऊधौ, ऐसोई फिरि जैहै॥
 
यह जापे लै आये हौ मधुकर, ताके उर न समैहै।
 
दाख छांडि कैं कटुक निबौरी को अपने मुख खैहै॥
 
मूरी के पातन के कैना को मुकताहल दैहै।
 
सूरदास, प्रभु गुनहिं छांड़िकै को निरगुन निरबैहै॥
 </poem>
कौन मूढ़ बदले में मूली के पत्ते खरीदेगा ? योग का यह ठग व्यवसाय प्रेमभूमि ब्रज
में चलने का नहीं।
 
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