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"दियौ अभय पद ठाऊँ / सूरदास" के अवतरणों में अंतर

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तुम तजि और कौन पै जाउँ।<br>
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काकैं द्वार जाइ सिर नाऊँ, पर हथ कहाँ बिकाउँ॥<br>
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ऐसौ को दाता है समरथ, जाके दियें अघाउँ।<br>
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अन्त काल तुम्हरैं सुमिरन गति, अनत कहूँ नहिं दाउँ॥<br>
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रंक सुदामा कियौ अजाची, दियौ अभय पद ठाउँ।<br>
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रंक सुदामा कियौ अजाची, दियौ अभय पद ठाउँ।
कामधेनु, चिंतामनि दीन्हौं,  कल्पवृच्छ-तर छाउँ॥<br>
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भव-समुद्र अति देखि भयानक, मन में अधिक डराउँ।<br>
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कीजै कृपा सुमिरि अपनौ प्रन, सूरदास बलि जाउँ॥<br><br>
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कीजै कृपा सुमिरि अपनौ प्रन, सूरदास बलि जाउँ॥
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भगवान् के सिवा और कौन सहारा हो सकता है। यह पद सूरकृत विनय पत्रिका से उद्धृत है। वह कहते हैं - आपको छोड़कर और किसके पास जाऊँ? किसके दरवाजे पर जाकर मस्तक झुकाऊँ? दूसरे किसके हाथ अपने को बेचूँ? ऐसा दूसरा कौन समर्थ दाता है, जिसके देने से मैं तृप्त होऊँ? अन्तिम समय में (मृत्यु के समय) एकमात्र आपके स्मरण से ही गति (उद्धार सम्भव) है, और कहीं भी स्थान नहीं है। कंगाल सुदामा को आपने अयाचक (मालामाल) कर दिया और अभयपद (वैकुण्ठ) में उन्हें स्थान दिया। उन्हें कामधेनु, चिन्तामणि और कल्पवृक्ष की छाया प्रदान की (कल्पवृक्ष भी उनके यहाँ लगा दिया)। अत्यन्त भयानक संसाररूपी समुद्र को देखकर मैं अपने मन में बहुत डर रहा हूँ। यह सूरदास आप पर न्यौछावर है, अपने (पतित-पावन) प्रण को स्मरण करके कृपा कीजिये।
 
भगवान् के सिवा और कौन सहारा हो सकता है। यह पद सूरकृत विनय पत्रिका से उद्धृत है। वह कहते हैं - आपको छोड़कर और किसके पास जाऊँ? किसके दरवाजे पर जाकर मस्तक झुकाऊँ? दूसरे किसके हाथ अपने को बेचूँ? ऐसा दूसरा कौन समर्थ दाता है, जिसके देने से मैं तृप्त होऊँ? अन्तिम समय में (मृत्यु के समय) एकमात्र आपके स्मरण से ही गति (उद्धार सम्भव) है, और कहीं भी स्थान नहीं है। कंगाल सुदामा को आपने अयाचक (मालामाल) कर दिया और अभयपद (वैकुण्ठ) में उन्हें स्थान दिया। उन्हें कामधेनु, चिन्तामणि और कल्पवृक्ष की छाया प्रदान की (कल्पवृक्ष भी उनके यहाँ लगा दिया)। अत्यन्त भयानक संसाररूपी समुद्र को देखकर मैं अपने मन में बहुत डर रहा हूँ। यह सूरदास आप पर न्यौछावर है, अपने (पतित-पावन) प्रण को स्मरण करके कृपा कीजिये।

15:49, 23 अक्टूबर 2009 के समय का अवतरण

राग मलार

दियौ अभय पद ठाऊँ
तुम तजि और कौन पै जाउँ।
काकैं द्वार जाइ सिर नाऊँ, पर हथ कहाँ बिकाउँ॥
ऐसौ को दाता है समरथ, जाके दियें अघाउँ।
अन्त काल तुम्हरैं सुमिरन गति, अनत कहूँ नहिं दाउँ॥
रंक सुदामा कियौ अजाची, दियौ अभय पद ठाउँ।
कामधेनु, चिंतामनि दीन्हौं, कल्पवृच्छ-तर छाउँ॥
भव-समुद्र अति देखि भयानक, मन में अधिक डराउँ।
कीजै कृपा सुमिरि अपनौ प्रन, सूरदास बलि जाउँ॥

भगवान् के सिवा और कौन सहारा हो सकता है। यह पद सूरकृत विनय पत्रिका से उद्धृत है। वह कहते हैं - आपको छोड़कर और किसके पास जाऊँ? किसके दरवाजे पर जाकर मस्तक झुकाऊँ? दूसरे किसके हाथ अपने को बेचूँ? ऐसा दूसरा कौन समर्थ दाता है, जिसके देने से मैं तृप्त होऊँ? अन्तिम समय में (मृत्यु के समय) एकमात्र आपके स्मरण से ही गति (उद्धार सम्भव) है, और कहीं भी स्थान नहीं है। कंगाल सुदामा को आपने अयाचक (मालामाल) कर दिया और अभयपद (वैकुण्ठ) में उन्हें स्थान दिया। उन्हें कामधेनु, चिन्तामणि और कल्पवृक्ष की छाया प्रदान की (कल्पवृक्ष भी उनके यहाँ लगा दिया)। अत्यन्त भयानक संसाररूपी समुद्र को देखकर मैं अपने मन में बहुत डर रहा हूँ। यह सूरदास आप पर न्यौछावर है, अपने (पतित-पावन) प्रण को स्मरण करके कृपा कीजिये।