"रतन-सौं जनम गँवायौ / सूरदास" के अवतरणों में अंतर
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+ | इहि माया झूठी प्रपंच लगि, रतन-सौं जनम गँवायौ॥ | ||
+ | कंचन कलस, बिचित्र चित्र करि, रचि-पचि भवन बनायौ। | ||
+ | तामैं तैं ततछन ही काढ़यौ, पल भर रहन न पायौ॥ | ||
+ | हौं तब संग जरौंगी, यौं कहि, तिया धूति धन खायौ। | ||
+ | चलत रही चित चोरि, मोरि मुख, एक न पग पहुँचायौ॥ | ||
+ | बोलि-बेलि सुत-स्वजन-मित्रजन, लीन्यौ सुजस सुहायौ। | ||
+ | पर्यौ जु काज अंत की बिरियाँ, तिनहुँ न आनि छुड़ायौ॥ | ||
+ | आसा करि-करि जननी जायौ, कोटिक लाड़ लड़ायौ। | ||
+ | तोरि लयौ कटिहू कौ डोरा, तापर बदन जरायौ॥ | ||
+ | पतित-उधारन, गनिका-तारन, सौ मैं सठ बिसरायौ। | ||
+ | लियौ न नाम कबहुँ धोखैं हूँ, सूरदास पछितायौ॥ | ||
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इस जीवन का मुख्य उद्देश्य हरि भजन करना है। हरि सुमिरन के बिना बीते पल को याद कर वृद्धावस्था में मनुष्य किस तरह व्यथित होता है उसका सांगोपांग चित्रण सूरदास जी ने इस पद के माध्यम से किया है। वह इस मिथ्यास्वरूप जगत् में एकमात्र भगवान् को ही अपना आधार मानते हैं। वह कहते हैं - श्रीहरि के बिना कोई काम नहीं आया। इस झूठी माया के <न् द्धह्मद्गद्घ="द्वड्डद्बद्यह्लश्र:प्रप@ो">प्रप@ों (संसार की मोह-ममता) में लगकर मैंने रत्न के समान मनुष्य जीवन खो दिया। जिस पर स्वर्ण-कलश चढ़ाया था और जिसमें विचित्र चित्रकारी करायी गयी थी, ऐसे भवन को बड़े परिश्रम से सजाकर बनवाया था; किंतु (प्राण निकलते ही) उस भवन में से शरीर तत्काल निकाल दिया गया, एक पल भी उसमें रह नहीं सका। मैं तुम्हारे साथ ही जलूँगी सती हो जाऊँगी इस प्रकार कह-कहकर झूठी <न् द्धह्मद्गद्घ="द्वड्डद्बद्यह्लश्र:प्रव@ना">प्रव@ना करके पत्नी ने मेरा धन खाया, मेरी सम्पत्ति का उपभोग किया। वह चित्त चुराते हुए चला करती थी, किंतु (प्राण निकल जाने पर) उसने मुँह फेर लिया और एक पग भी नहीं पहुँचाया। पुत्रों, सगे-सम्बन्धियों और मित्रों को बुला-बुलाकर (उनकी सहायता करके) मैंने बड़ा सुहावना सुयश प्राप्त किया था; किंतु अन्त समय में जब काम पड़ा, तब उन्होंने भी मुझे आकर (मृत्यु से) छुड़ाया नहीं। बहुत-सी आशाएँ करके माता ने जन्म दिया था और करोड़ों प्रकार से लाड़ लड़ाया (प्यार किया) था, किंतु (मरने पर पुत्र ने) उसके कमर का धागा (कटिसूत्र) भी तोड़ लिया और इस पर भी उसका मुख जला दिया (मुख में अग्नि दी)। जो पतितों का उद्धार करनेवाले हैं; गणिका को (भी) जिन्होंने मुक्त कर दिया, मुझ शठ ने उन प्रभु को भुला दिया। कभी धोखे में भी उनका नाम नहीं लिया। यह पद राग-गूजरी में पर आधारित है। | इस जीवन का मुख्य उद्देश्य हरि भजन करना है। हरि सुमिरन के बिना बीते पल को याद कर वृद्धावस्था में मनुष्य किस तरह व्यथित होता है उसका सांगोपांग चित्रण सूरदास जी ने इस पद के माध्यम से किया है। वह इस मिथ्यास्वरूप जगत् में एकमात्र भगवान् को ही अपना आधार मानते हैं। वह कहते हैं - श्रीहरि के बिना कोई काम नहीं आया। इस झूठी माया के <न् द्धह्मद्गद्घ="द्वड्डद्बद्यह्लश्र:प्रप@ो">प्रप@ों (संसार की मोह-ममता) में लगकर मैंने रत्न के समान मनुष्य जीवन खो दिया। जिस पर स्वर्ण-कलश चढ़ाया था और जिसमें विचित्र चित्रकारी करायी गयी थी, ऐसे भवन को बड़े परिश्रम से सजाकर बनवाया था; किंतु (प्राण निकलते ही) उस भवन में से शरीर तत्काल निकाल दिया गया, एक पल भी उसमें रह नहीं सका। मैं तुम्हारे साथ ही जलूँगी सती हो जाऊँगी इस प्रकार कह-कहकर झूठी <न् द्धह्मद्गद्घ="द्वड्डद्बद्यह्लश्र:प्रव@ना">प्रव@ना करके पत्नी ने मेरा धन खाया, मेरी सम्पत्ति का उपभोग किया। वह चित्त चुराते हुए चला करती थी, किंतु (प्राण निकल जाने पर) उसने मुँह फेर लिया और एक पग भी नहीं पहुँचाया। पुत्रों, सगे-सम्बन्धियों और मित्रों को बुला-बुलाकर (उनकी सहायता करके) मैंने बड़ा सुहावना सुयश प्राप्त किया था; किंतु अन्त समय में जब काम पड़ा, तब उन्होंने भी मुझे आकर (मृत्यु से) छुड़ाया नहीं। बहुत-सी आशाएँ करके माता ने जन्म दिया था और करोड़ों प्रकार से लाड़ लड़ाया (प्यार किया) था, किंतु (मरने पर पुत्र ने) उसके कमर का धागा (कटिसूत्र) भी तोड़ लिया और इस पर भी उसका मुख जला दिया (मुख में अग्नि दी)। जो पतितों का उद्धार करनेवाले हैं; गणिका को (भी) जिन्होंने मुक्त कर दिया, मुझ शठ ने उन प्रभु को भुला दिया। कभी धोखे में भी उनका नाम नहीं लिया। यह पद राग-गूजरी में पर आधारित है। |
16:21, 24 अक्टूबर 2009 के समय का अवतरण
रतन-सौं जनम गँवायौ
हरि बिनु कोऊ काम न आयौ।
इहि माया झूठी प्रपंच लगि, रतन-सौं जनम गँवायौ॥
कंचन कलस, बिचित्र चित्र करि, रचि-पचि भवन बनायौ।
तामैं तैं ततछन ही काढ़यौ, पल भर रहन न पायौ॥
हौं तब संग जरौंगी, यौं कहि, तिया धूति धन खायौ।
चलत रही चित चोरि, मोरि मुख, एक न पग पहुँचायौ॥
बोलि-बेलि सुत-स्वजन-मित्रजन, लीन्यौ सुजस सुहायौ।
पर्यौ जु काज अंत की बिरियाँ, तिनहुँ न आनि छुड़ायौ॥
आसा करि-करि जननी जायौ, कोटिक लाड़ लड़ायौ।
तोरि लयौ कटिहू कौ डोरा, तापर बदन जरायौ॥
पतित-उधारन, गनिका-तारन, सौ मैं सठ बिसरायौ।
लियौ न नाम कबहुँ धोखैं हूँ, सूरदास पछितायौ॥
इस जीवन का मुख्य उद्देश्य हरि भजन करना है। हरि सुमिरन के बिना बीते पल को याद कर वृद्धावस्था में मनुष्य किस तरह व्यथित होता है उसका सांगोपांग चित्रण सूरदास जी ने इस पद के माध्यम से किया है। वह इस मिथ्यास्वरूप जगत् में एकमात्र भगवान् को ही अपना आधार मानते हैं। वह कहते हैं - श्रीहरि के बिना कोई काम नहीं आया। इस झूठी माया के <न् द्धह्मद्गद्घ="द्वड्डद्बद्यह्लश्र:प्रप@ो">प्रप@ों (संसार की मोह-ममता) में लगकर मैंने रत्न के समान मनुष्य जीवन खो दिया। जिस पर स्वर्ण-कलश चढ़ाया था और जिसमें विचित्र चित्रकारी करायी गयी थी, ऐसे भवन को बड़े परिश्रम से सजाकर बनवाया था; किंतु (प्राण निकलते ही) उस भवन में से शरीर तत्काल निकाल दिया गया, एक पल भी उसमें रह नहीं सका। मैं तुम्हारे साथ ही जलूँगी सती हो जाऊँगी इस प्रकार कह-कहकर झूठी <न् द्धह्मद्गद्घ="द्वड्डद्बद्यह्लश्र:प्रव@ना">प्रव@ना करके पत्नी ने मेरा धन खाया, मेरी सम्पत्ति का उपभोग किया। वह चित्त चुराते हुए चला करती थी, किंतु (प्राण निकल जाने पर) उसने मुँह फेर लिया और एक पग भी नहीं पहुँचाया। पुत्रों, सगे-सम्बन्धियों और मित्रों को बुला-बुलाकर (उनकी सहायता करके) मैंने बड़ा सुहावना सुयश प्राप्त किया था; किंतु अन्त समय में जब काम पड़ा, तब उन्होंने भी मुझे आकर (मृत्यु से) छुड़ाया नहीं। बहुत-सी आशाएँ करके माता ने जन्म दिया था और करोड़ों प्रकार से लाड़ लड़ाया (प्यार किया) था, किंतु (मरने पर पुत्र ने) उसके कमर का धागा (कटिसूत्र) भी तोड़ लिया और इस पर भी उसका मुख जला दिया (मुख में अग्नि दी)। जो पतितों का उद्धार करनेवाले हैं; गणिका को (भी) जिन्होंने मुक्त कर दिया, मुझ शठ ने उन प्रभु को भुला दिया। कभी धोखे में भी उनका नाम नहीं लिया। यह पद राग-गूजरी में पर आधारित है।