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दीदी के धूल भरे पाँव
बरसों के बाद आज
फिर यह मन लौटा है क्यों अपने गाँव;
अगहन की कोहरीली भोर:
हाय कहीं अब तक क्यों
दूख दूख जाती है मन की कोर!
एक लाख मोती, दो लाख जवाहर
वाला, यह झिलमिल करता महानगर
होते ही शाम कहाँ जाने बुझ जाता है-
उग आता है मन में
जाने कब का छूटा एक पुराना गँवई का कच्चा घर
जब जीवन में केवल इतना ही सच था:
कोकाबेली की लड़, इमली की छाँव!