"उनकी दास्तान / अजित कुमार" के अवतरणों में अंतर
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जब उन्होंने पहली नौकरी पाई | जब उन्होंने पहली नौकरी पाई | ||
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हर दिन का सफ़र इतना लंबा था | हर दिन का सफ़र इतना लंबा था | ||
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साइकिल ज़रूरी हुई तय करने के लिए | साइकिल ज़रूरी हुई तय करने के लिए | ||
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पर उसे खरीदने के वास्ते पैसे नहीं थे। | पर उसे खरीदने के वास्ते पैसे नहीं थे। | ||
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एक मित्र से उधार मिला... | एक मित्र से उधार मिला... | ||
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साल भर तक हर महीने सौ रुपये चुका | साल भर तक हर महीने सौ रुपये चुका | ||
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भरपाई हुई जिस दिन उसी रोज़ साइकिल चोरी गई- | भरपाई हुई जिस दिन उसी रोज़ साइकिल चोरी गई- | ||
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‘अँधरऊ बटत जाँय, पँड़ऊ चबात जाँय’- | ‘अँधरऊ बटत जाँय, पँड़ऊ चबात जाँय’- | ||
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कहावत को सिद्ध करती। | कहावत को सिद्ध करती। | ||
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तब से यह एक पैटर्न बन गया- | तब से यह एक पैटर्न बन गया- | ||
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इधर वेतन मिला, उधर हूर्र... | इधर वेतन मिला, उधर हूर्र... | ||
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फिर भी सबों की तरह उनके पास भी | फिर भी सबों की तरह उनके पास भी | ||
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कुछ-न-कुछ चीज़-बस्त इकट्ठी होती ही गई | कुछ-न-कुछ चीज़-बस्त इकट्ठी होती ही गई | ||
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बर्तन-भांडे, कपडे-लत्ते, काग़ज़-पत्तर, कुर्सी-मेज़, पंखे,कूलर… | बर्तन-भांडे, कपडे-लत्ते, काग़ज़-पत्तर, कुर्सी-मेज़, पंखे,कूलर… | ||
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और वह वक़्त भी आया, घर में सामान इतना बढा… | और वह वक़्त भी आया, घर में सामान इतना बढा… | ||
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अकसर कहने लगीं पत्नी- | अकसर कहने लगीं पत्नी- | ||
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इतना कूड़ा इकटठा है, इसे फेंको, | इतना कूड़ा इकटठा है, इसे फेंको, | ||
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अपने रहने के लिए थोड़ी जगह तो निकले। | अपने रहने के लिए थोड़ी जगह तो निकले। | ||
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हर बार वे अडंगा लगा देते- | हर बार वे अडंगा लगा देते- | ||
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'सबसे पहले इस कूड़े-- मुझ बूढे -को फेंको, | 'सबसे पहले इस कूड़े-- मुझ बूढे -को फेंको, | ||
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उसके बाद सब-कुछ को माचिस लगा देना।' | उसके बाद सब-कुछ को माचिस लगा देना।' | ||
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यही डायलाग उनके बीच सालो-साल चलता रहा, | यही डायलाग उनके बीच सालो-साल चलता रहा, | ||
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इस हद तक पहुँचता कि एक रोज़ | इस हद तक पहुँचता कि एक रोज़ | ||
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जब कबाड़ी घर की पुरानी पत्रिकायें ले जा रहा था, | जब कबाड़ी घर की पुरानी पत्रिकायें ले जा रहा था, | ||
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वे बुरी तरह बिफर गए- | वे बुरी तरह बिफर गए- | ||
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‘मुझे भी इनके साथ अपनी बोरी में बांधो ।‘ | ‘मुझे भी इनके साथ अपनी बोरी में बांधो ।‘ | ||
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यह तमाशा कुछ पड़ोसियों ने भी देखा, | यह तमाशा कुछ पड़ोसियों ने भी देखा, | ||
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गोकि बीच-बचाव करने के लालच में जब वे नहीं पडे़ | गोकि बीच-बचाव करने के लालच में जब वे नहीं पडे़ | ||
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तो चारपाई और चादर ने ही बुढ़ऊ की खिसियाहट छिपाई । | तो चारपाई और चादर ने ही बुढ़ऊ की खिसियाहट छिपाई । | ||
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इस कथा का अन्त यों हुआ— | इस कथा का अन्त यों हुआ— | ||
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घरवालों की कुरेद से तंग आ | घरवालों की कुरेद से तंग आ | ||
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अंगड़-खंगड़ सब ठेले पर लाद | अंगड़-खंगड़ सब ठेले पर लाद | ||
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जब वे बडे़ बाज़ार में उसे बेचने को पहुँचे | जब वे बडे़ बाज़ार में उसे बेचने को पहुँचे | ||
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और ढेर से कूपन मिले | और ढेर से कूपन मिले | ||
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जिनके बदले उसी बाज़ार से | जिनके बदले उसी बाज़ार से | ||
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मनपसंद चीज़ें ख़रीद लाने की सुविधा थी, | मनपसंद चीज़ें ख़रीद लाने की सुविधा थी, | ||
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वे बेक़रार हो उठे- | वे बेक़रार हो उठे- | ||
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हर ऐरे-गैरे के हाथ कुछ कूपन थमाते | हर ऐरे-गैरे के हाथ कुछ कूपन थमाते | ||
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और बाक़ियों को हवा में बिखराते, | और बाक़ियों को हवा में बिखराते, | ||
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वे हँसते हुए बोले— 'यही तो असली मुद्दा है- | वे हँसते हुए बोले— 'यही तो असली मुद्दा है- | ||
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जीवन भर में इकट्ठा हुए कचरे से | जीवन भर में इकट्ठा हुए कचरे से | ||
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आख़िरकार जब छुट्टी मिली, | आख़िरकार जब छुट्टी मिली, | ||
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तो दूसरा और कचरा उठा अपने घर में ले जाऊँ, | तो दूसरा और कचरा उठा अपने घर में ले जाऊँ, | ||
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इतना भोंदू मैं नहीं हूँ... | इतना भोंदू मैं नहीं हूँ... | ||
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'नहीं चाहिए मुझे कुछ भी | 'नहीं चाहिए मुझे कुछ भी | ||
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कोई माल, असबाब, सामान- कुच्छ भी नहीं।' | कोई माल, असबाब, सामान- कुच्छ भी नहीं।' | ||
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उनकी यह बरबराहट सुन,पत्नी विलाप कर उठीं- | उनकी यह बरबराहट सुन,पत्नी विलाप कर उठीं- | ||
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'इन्हें तो प्यार था अपनी हर चीज़ से, | 'इन्हें तो प्यार था अपनी हर चीज़ से, | ||
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सब कुछ सदा छाती से चिपकाए रखते थे... | सब कुछ सदा छाती से चिपकाए रखते थे... | ||
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अब देखो न, अचानक हो गए ऐसे निर्मोही | अब देखो न, अचानक हो गए ऐसे निर्मोही | ||
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मानो किसी का कोई अर्थ नहीं।'... | मानो किसी का कोई अर्थ नहीं।'... | ||
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तब छोटकू ने इस टीप मे अपना बन्द जोड़ा- | तब छोटकू ने इस टीप मे अपना बन्द जोड़ा- | ||
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'दरअसल दादा जी | 'दरअसल दादा जी | ||
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सामान के नहीं, सम्मान के भूखे हैं।' | सामान के नहीं, सम्मान के भूखे हैं।' | ||
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इस पर राहत की साँस ले इकट्ठा घरवालों ने | इस पर राहत की साँस ले इकट्ठा घरवालों ने | ||
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जब शुरू किया कोरस | जब शुरू किया कोरस | ||
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एक स्वर से-- 'हिप-हिप-हुर्रे... | एक स्वर से-- 'हिप-हिप-हुर्रे... | ||
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'भापाजी, तुसी ग्रेट हो'... | 'भापाजी, तुसी ग्रेट हो'... | ||
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बुजुर्गवार के होठों पर | बुजुर्गवार के होठों पर | ||
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महज उदास और फ़ीकी-सी मुस्कान ही नज़र आई- | महज उदास और फ़ीकी-सी मुस्कान ही नज़र आई- | ||
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उन सभी के उत्साह पर पानी फेरती । | उन सभी के उत्साह पर पानी फेरती । | ||
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11:36, 1 नवम्बर 2009 के समय का अवतरण
जब उन्होंने पहली नौकरी पाई
हर दिन का सफ़र इतना लंबा था
साइकिल ज़रूरी हुई तय करने के लिए
पर उसे खरीदने के वास्ते पैसे नहीं थे।
एक मित्र से उधार मिला...
साल भर तक हर महीने सौ रुपये चुका
भरपाई हुई जिस दिन उसी रोज़ साइकिल चोरी गई-
‘अँधरऊ बटत जाँय, पँड़ऊ चबात जाँय’-
कहावत को सिद्ध करती।
तब से यह एक पैटर्न बन गया-
इधर वेतन मिला, उधर हूर्र...
फिर भी सबों की तरह उनके पास भी
कुछ-न-कुछ चीज़-बस्त इकट्ठी होती ही गई
बर्तन-भांडे, कपडे-लत्ते, काग़ज़-पत्तर, कुर्सी-मेज़, पंखे,कूलर…
और वह वक़्त भी आया, घर में सामान इतना बढा…
अकसर कहने लगीं पत्नी-
इतना कूड़ा इकटठा है, इसे फेंको,
अपने रहने के लिए थोड़ी जगह तो निकले।
हर बार वे अडंगा लगा देते-
'सबसे पहले इस कूड़े-- मुझ बूढे -को फेंको,
उसके बाद सब-कुछ को माचिस लगा देना।'
यही डायलाग उनके बीच सालो-साल चलता रहा,
इस हद तक पहुँचता कि एक रोज़
जब कबाड़ी घर की पुरानी पत्रिकायें ले जा रहा था,
वे बुरी तरह बिफर गए-
‘मुझे भी इनके साथ अपनी बोरी में बांधो ।‘
यह तमाशा कुछ पड़ोसियों ने भी देखा,
गोकि बीच-बचाव करने के लालच में जब वे नहीं पडे़
तो चारपाई और चादर ने ही बुढ़ऊ की खिसियाहट छिपाई ।
इस कथा का अन्त यों हुआ—
घरवालों की कुरेद से तंग आ
अंगड़-खंगड़ सब ठेले पर लाद
जब वे बडे़ बाज़ार में उसे बेचने को पहुँचे
और ढेर से कूपन मिले
जिनके बदले उसी बाज़ार से
मनपसंद चीज़ें ख़रीद लाने की सुविधा थी,
वे बेक़रार हो उठे-
हर ऐरे-गैरे के हाथ कुछ कूपन थमाते
और बाक़ियों को हवा में बिखराते,
वे हँसते हुए बोले— 'यही तो असली मुद्दा है-
जीवन भर में इकट्ठा हुए कचरे से
आख़िरकार जब छुट्टी मिली,
तो दूसरा और कचरा उठा अपने घर में ले जाऊँ,
इतना भोंदू मैं नहीं हूँ...
'नहीं चाहिए मुझे कुछ भी
कोई माल, असबाब, सामान- कुच्छ भी नहीं।'
उनकी यह बरबराहट सुन,पत्नी विलाप कर उठीं-
'इन्हें तो प्यार था अपनी हर चीज़ से,
सब कुछ सदा छाती से चिपकाए रखते थे...
अब देखो न, अचानक हो गए ऐसे निर्मोही
मानो किसी का कोई अर्थ नहीं।'...
तब छोटकू ने इस टीप मे अपना बन्द जोड़ा-
'दरअसल दादा जी
सामान के नहीं, सम्मान के भूखे हैं।'
इस पर राहत की साँस ले इकट्ठा घरवालों ने
जब शुरू किया कोरस
एक स्वर से-- 'हिप-हिप-हुर्रे...
'भापाजी, तुसी ग्रेट हो'...
बुजुर्गवार के होठों पर
महज उदास और फ़ीकी-सी मुस्कान ही नज़र आई-
उन सभी के उत्साह पर पानी फेरती ।