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|संग्रह=अंकित होने दो / अजित कुमार
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अब दिन भारी हुए ।
प्यास के मारे
पशु बेचारे
दर-दर भटकेंगे, अटकेंगे तृण-तृण पर
माथा-सा पटकेंगे
जब सूख चलेंगे
ताल-तलैये, कुएँ ।
वृक्षों ने जो
थे श्रंगार किये दो दिन पहले
वो
बिखरेंगे प्रत्येक दिशा में-
लेंगी लपटएं जब
निष्ठुर
-निर्दयी हवायें और आँधियां, लुएं।
इन सबसे निस्संग-
मदिर, अम्लान, मुक्त, मधुरंग-
कहाँ रह पायेंगे मेरे संवेदन।
अलसायेगा यह मेरा मन ।
गायेगा, पर कुम्हलाये-से जान पड़ेंगे क्या
वे सारे भाव ।- कि जो लगते-से थे- हैं युग-युग से अनचुए ।
अब दिन भारी हुए ।
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