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"अकेले तुम / अजित कुमार" के अवतरणों में अंतर

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अगर दिन रहता,
 
अगर दिन रहता,
 
 
अचानक रात आ जाती ।
 
अचानक रात आ जाती ।
 
 
न मैं इस तरह दुख सहता कि मानो :
 
न मैं इस तरह दुख सहता कि मानो :
 
 
प्राण पिंजरे में पड़े हों,
 
प्राण पिंजरे में पड़े हों,
 
:  -द्वार हों उन्मुक्त,
 
:  -द्वार हों उन्मुक्त,
 
 
सम्मुख हो गगन का मुक्त पारावार-
 
सम्मुख हो गगन का मुक्त पारावार-
 
 
आकर्षण बड़े हों ।
 
आकर्षण बड़े हों ।
 
 
:  -किन्तु, पंखों के चरम अभ्यास,
 
:  -किन्तु, पंखों के चरम अभ्यास,
 
 
चरणों के अतुल विश्वास  
 
चरणों के अतुल विश्वास  
 
 
सबके सब वहीं जकड़े खड़े हों,
 
सबके सब वहीं जकड़े खड़े हों,
 
 
लौह पिंजर  के भयावह सींकचों से जा अड़े हों ।
 
लौह पिंजर  के भयावह सींकचों से जा अड़े हों ।
 
  
 
अगर दिन  रहता  
 
अगर दिन  रहता  
 
 
अचानक रात आ जाती…
 
अचानक रात आ जाती…
 
:  -न मैं इस तरह दुख सहता ।
 
:  -न मैं इस तरह दुख सहता ।
 
  
 
किन्तु बैरिन सांझ आई-
 
किन्तु बैरिन सांझ आई-
 
 
विगत स्मृतियों की अशुभ प्रेतात्माएँ, और
 
विगत स्मृतियों की अशुभ प्रेतात्माएँ, और
 
 
मटमैले धुंधलके साथ लाई,
 
मटमैले धुंधलके साथ लाई,
 
 
अचानक जैसे सुलगने लगीं नम, गीली लकड़ियाँ,
 
अचानक जैसे सुलगने लगीं नम, गीली लकड़ियाँ,
 
 
धुआँ वैसा ही उठा : जैसे घरों से :
 
धुआँ वैसा ही उठा : जैसे घरों से :
 
 
काटता चक्कर, लकीरें छोड़ता, गहरा, अनिश्चित ,
 
काटता चक्कर, लकीरें छोड़ता, गहरा, अनिश्चित ,
 
 
हुआ मन कड़ुआ, डबाडब आँख भर आई ।
 
हुआ मन कड़ुआ, डबाडब आँख भर आई ।
 
  
 
झुटपुटे में कहीं थोड़ा-सा उजाला,
 
झुटपुटे में कहीं थोड़ा-सा उजाला,
 
 
कहीं ज्यादा-सा अंधेरा :
 
कहीं ज्यादा-सा अंधेरा :
 
 
क्रूर, निर्दय दैत्य के आकार का घेरा बनाकर बढा...
 
क्रूर, निर्दय दैत्य के आकार का घेरा बनाकर बढा...
 
 
मुझको लगा जैसे
 
मुझको लगा जैसे
 
 
-प्राण पिंजरे में पड़े हैं, और
 
-प्राण पिंजरे में पड़े हैं, और
 
 
बाहर व्याघ्र , शूकर, श्वान,-
 
बाहर व्याघ्र , शूकर, श्वान,-
 
 
सुधियों, यातनाओं, दुखों के-
 
सुधियों, यातनाओं, दुखों के-
 
 
घेरे खड़े हैं।
 
घेरे खड़े हैं।
 
 
जिन्दगी के साथ ज्यों अभिशाप के फेरे पड़े हैं ।
 
जिन्दगी के साथ ज्यों अभिशाप के फेरे पड़े हैं ।
 
  
 
तभी कोई एक पंछी  
 
तभी कोई एक पंछी  
 
 
शाम की निस्तब्धता को तोड़ता,
 
शाम की निस्तब्धता को तोड़ता,
 
 
अपने निशा-आवास को जाता हुआ बोला :
 
अपने निशा-आवास को जाता हुआ बोला :
 
 
:  व्यर्थ ही यह सब तुम्हारा दु:ख औ' अवसाद है,
 
:  व्यर्थ ही यह सब तुम्हारा दु:ख औ' अवसाद है,
 
 
:  शाम तो रंगीन है, मदहोश है, उन्माद है,
 
:  शाम तो रंगीन है, मदहोश है, उन्माद है,
 
 
:  एक दिन ही नहीं, वह हर रोज़ आएगी,
 
:  एक दिन ही नहीं, वह हर रोज़ आएगी,
 
 
:  तुम्हारे देखते : संसार पर सोना लुटाएगी ।
 
:  तुम्हारे देखते : संसार पर सोना लुटाएगी ।
 
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घुटोगे तुम, पिसोगे तुम, रुकोगे तुम  
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-अकेले तुम ।
 
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  न देगा साथ कोई पशु, न पक्षी और नर-नारी,
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न देगा साथ कोई फूल, पत्थर, गीत, सपना-
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  बस, अकेले तुम, अकेले तुम...
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19:54, 1 नवम्बर 2009 के समय का अवतरण

अगर दिन रहता,
अचानक रात आ जाती ।
न मैं इस तरह दुख सहता कि मानो :
प्राण पिंजरे में पड़े हों,
-द्वार हों उन्मुक्त,
सम्मुख हो गगन का मुक्त पारावार-
आकर्षण बड़े हों ।
-किन्तु, पंखों के चरम अभ्यास,
चरणों के अतुल विश्वास
सबके सब वहीं जकड़े खड़े हों,
लौह पिंजर के भयावह सींकचों से जा अड़े हों ।

अगर दिन रहता
अचानक रात आ जाती…
-न मैं इस तरह दुख सहता ।

किन्तु बैरिन सांझ आई-
विगत स्मृतियों की अशुभ प्रेतात्माएँ, और
मटमैले धुंधलके साथ लाई,
अचानक जैसे सुलगने लगीं नम, गीली लकड़ियाँ,
धुआँ वैसा ही उठा : जैसे घरों से :
काटता चक्कर, लकीरें छोड़ता, गहरा, अनिश्चित ,
हुआ मन कड़ुआ, डबाडब आँख भर आई ।

झुटपुटे में कहीं थोड़ा-सा उजाला,
कहीं ज्यादा-सा अंधेरा :
क्रूर, निर्दय दैत्य के आकार का घेरा बनाकर बढा...
मुझको लगा जैसे
-प्राण पिंजरे में पड़े हैं, और
बाहर व्याघ्र , शूकर, श्वान,-
सुधियों, यातनाओं, दुखों के-
घेरे खड़े हैं।
जिन्दगी के साथ ज्यों अभिशाप के फेरे पड़े हैं ।

तभी कोई एक पंछी
शाम की निस्तब्धता को तोड़ता,
अपने निशा-आवास को जाता हुआ बोला :
व्यर्थ ही यह सब तुम्हारा दु:ख औ' अवसाद है,
शाम तो रंगीन है, मदहोश है, उन्माद है,
एक दिन ही नहीं, वह हर रोज़ आएगी,
तुम्हारे देखते : संसार पर सोना लुटाएगी ।
घुटोगे तुम, पिसोगे तुम, रुकोगे तुम
-अकेले तुम ।
  
न देगा साथ कोई पशु, न पक्षी और नर-नारी,
न देगा साथ कोई फूल, पत्थर, गीत, सपना-

बस, अकेले तुम, अकेले तुम...