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21:13, 1 नवम्बर 2009 के समय का अवतरण
किताबों में बिठाते दीमकें,
परदों को करते तार-तार,
खिड़कियों के शीशे चटखाते,
वे घरों मे लगा रहे हैं आग ।
‘टैक्स-टैक्स’ चिल्लाता एक व्यक्ति ।
नज़्ज़ारा देखने को उमड़े हुए हुजूम ।
किलकारी या कराह को डुबोता अट्टहास ।
बैंड, वर्दियाँ,
कुतूहल से भरा वह शिशु ।
भाग,भाग ।
तू भाग सके
तो भाग ।
लेकिन जाएगा कहाँ ?
उनका हाथ तेरी घिसटती चाल पर टिका,
उनकी जकड़ तेरे मन पर, चेतना पर,
धड़कन पर ।
तेरी नियति है :
खड़े-खड़े देखना और कहना—
‘वह स्वप्न था,
अब तो गया हूँ मैं जाग।‘
महज़
राख के ढेर,
फुलझड़ियों का धुआँ,
कड़ुवाहट ।
बुझते हुए शोले ।
इस आग ने जीवन के संदर्भ बदल दिए ।