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"असाध्य वीणा / अज्ञेय / पृष्ठ 4" के अवतरणों में अंतर

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अपनी छाया में पले मृगों की चौकड़ियों को ताल बाँध,
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काँपी थी उँगलियाँ।<br>
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अपने जीवन-संचय को कर छंदयुक्त,
अलस अँगड़ाई ले कर मानो जाग उठी थी वीणा :<br>
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अपनी प्रज्ञा को वाणी दे !
किलक उठे थे स्वर-शिशु।<br>
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तू गा, तू गा --  
नीरव पद रखता जालिक मायावी<br>
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तू सन्निधि पा -- तू खो
सधे करों से धीरे धीरे धीरे<br>
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तू आ -- तू हो -- तू गा ! तू गा !" 
डाल रहा था जाल हेम तारों-का ।<br><br>
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राजा आगे
संगीतकार की आँखों में ठंडी पिघली ज्वाला-सी झलक गयी --<br>
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समाधिस्थ संगीतकार का हाथ उठा था --  
रोमांच एक बिजली-सा सबके तन में दौड़ गया ।<br>
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काँपी थी उँगलियाँ।
अवतरित हुआ संगीत<br>
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अलस अँगड़ाई ले कर मानो जाग उठी थी वीणा :
स्वयम्भू<br>
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किलक उठे थे स्वर-शिशु।
जिसमें सीत है अखंड<br>
+
नीरव पद रखता जालिक मायावी
ब्रह्मा का मौन<br>
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सधे करों से धीरे धीरे धीरे
अशेष प्रभामय <br><br>
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डाल रहा था जाल हेम तारों-का ।
  
डूब गये सब एक साथ <br>
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सहसा वीणा झनझना उठी --
सब अलग-अलग एकाकी पार तिरे <br><br>
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संगीतकार की आँखों में ठंडी पिघली ज्वाला-सी झलक गयी --
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रोमांच एक बिजली-सा सबके तन में दौड़ गया ।  
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अवतरित हुआ संगीत
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स्वयम्भू
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जिसमें सीत है अखंड
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ब्रह्मा का मौन
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अशेष प्रभामय
  
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डूब गये सब एक साथ ।
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00:33, 2 नवम्बर 2009 के समय का अवतरण

चित्र:Veena instrument.jpg

"मुझे स्मरण है
उझक क्षितिज से
किरण भोर की पहली
जब तकती है ओस-बूँद को
उस क्षण की सहसा चौंकी-सी सिहरन।
और दुपहरी में जब
घास-फूल अनदेखे खिल जाते हैं
मौमाखियाँ असंख्य झूमती करती हैं गुंजार --
उस लम्बे विलमे क्षण का तन्द्रालस ठहराव।
और साँझ को
जब तारों की तरल कँपकँपी

स्पर्शहीन झरती है --
मानो नभ में तरल नयन ठिठकी
नि:संख्य सवत्सा युवती माताओं के आशिर्वाद --
उस सन्धि-निमिष की पुलकन लीयमान।

"मुझे स्मरण है
और चित्र प्रत्येक
स्तब्ध, विजड़ित करता है मुझको।
सुनता हूँ मैं
पर हर स्वर-कम्पन लेता है मुझको मुझसे सोख --
वायु-सा नाद-भरा मैं उड़ जाता हूँ। ...
मुझे स्मरण है --
पर मुझको मैं भूल गया हूँ :
सुनता हूँ मैं --
पर मैं मुझसे परे, शब्द में लीयमान।

"मैं नहीं, नहीं ! मैं कहीं नहीं !
ओ रे तरु ! ओ वन !
ओ स्वर-सँभार !
नाद-मय संसृति !
ओ रस-प्लावन !
मुझे क्षमा कर -- भूल अकिंचनता को मेरी --
मुझे ओट दे -- ढँक ले -- छा ले --
ओ शरण्य !
मेरे गूँगेपन को तेरे सोये स्वर-सागर का ज्वार डुबा ले !
आ, मुझे भला,
तू उतर बीन के तारों में
अपने से गा
अपने को गा --
अपने खग-कुल को मुखरित कर

चित्र:Veena instrument.jpg

अपनी छाया में पले मृगों की चौकड़ियों को ताल बाँध,
अपने छायातप, वृष्टि-पवन, पल्लव-कुसुमन की लय पर
अपने जीवन-संचय को कर छंदयुक्त,
अपनी प्रज्ञा को वाणी दे !
तू गा, तू गा --
तू सन्निधि पा -- तू खो
तू आ -- तू हो -- तू गा ! तू गा !"

राजा आगे
समाधिस्थ संगीतकार का हाथ उठा था --
काँपी थी उँगलियाँ।
अलस अँगड़ाई ले कर मानो जाग उठी थी वीणा :
किलक उठे थे स्वर-शिशु।
नीरव पद रखता जालिक मायावी
सधे करों से धीरे धीरे धीरे
डाल रहा था जाल हेम तारों-का ।

सहसा वीणा झनझना उठी --
संगीतकार की आँखों में ठंडी पिघली ज्वाला-सी झलक गयी --
रोमांच एक बिजली-सा सबके तन में दौड़ गया ।
अवतरित हुआ संगीत
स्वयम्भू
जिसमें सीत है अखंड
ब्रह्मा का मौन
अशेष प्रभामय ।

डूब गये सब एक साथ ।
सब अलग-अलग एकाकी पार तिरे ।

चित्र:Veena instrument.jpg

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