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असाध्य वीणा / अज्ञेय / पृष्ठ 6

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[[चित्र:Veena_instrument.jpg]]
<poem>
वीणा फिर मूक हो गयी ।
साधु ! साधु ! "
उसने
राजा सिंहासन से उतरे --
"रानी ने अर्पित की सतलड़ी माल,
वीणा फिर मूक हो गयी ।<br>साधु हे स्वरजित ! साधु धन्य ! धन्य ! "<br>उसने<br>राजा सिंहासन से उतरे --<br>"रानी ने अर्पित की सतलड़ी माल,<br><br>
हे स्वरजित ! धन्य ! धन्य ! संगीतकार वीणा को धीरे से नीचे रख, ढँक -- मानो गोदी में सोये शिशु को पालने डाल कर मुग्धा माँ हट जाय, दीठ से दुलारती -- उठ खड़ा हुआ । बढ़ते राजा का हाथ उठा करता आवर्जन, बोला : "<br><br>श्रेय नहीं कुछ मेरा : मैं तो डूब गया था स्वयं शून्य में वीणा के माध्यम से अपने को मैंने सब कुछ को सौंप दिया था -- सुना आपने जो वह मेरा नहीं, न वीणा का था : वह तो सब कुछ की तथता थी महाशून्य वह महामौन अविभाज्य, अनाप्त, अद्रवित, अप्रमेय जो शब्दहीन सबमें गाता है ।"
संगीतकार<br>वीणा को धीरे से नीचे रख, ढँक नमस्कार कर मुड़ा प्रियंवद केशकम्बली। लेकर कम्बल गेह-- मानो<br>गोदी में सोये शिशु गुफा को पालने डाल कर मुग्धा माँ<br>हट जाय, दीठ से दुलारती --<br>उठ खड़ा हुआ ।<br>बढ़ते राजा का हाथ उठा करता आवर्जन,<br>बोला :<br>"श्रेय नहीं कुछ मेरा :<br>मैं तो डूब चला गया था स्वयं शून्य में<br>वीणा के माध्यम से अपने को मैंने<br>सब कुछ को सौंप दिया था --<br>सुना आपने जो वह मेरा नहीं,<br>न वीणा का था :<br>वह तो सब कुछ की तथता थी<br>महाशून्य<br>वह महामौन<br>अविभाज्य, अनाप्त, अद्रवित, अप्रमेय<br>जो शब्दहीन<br>सबमें गाता है "<br><br>
नमस्कार कर मुड़ा प्रियंवद केशकम्बली। लेकर कम्बल गेहउठ गयी सभा । सब अपने-गुफा को चला अपने काम लगे । युग पलट गया ।<br><br>
उठ गयी सभा । सब अपने-अपने काम लगे ।<br>प्रिय पाठक ! यों मेरी वाणी भी युग पलट गया मौन हुई <br><br>
प्रिय पाठक ! यों मेरी वाणी भी<br>मौन हुई ।<br><br> [[चित्र:Veena_instrument.jpg]] <br><br/poem>
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