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सुजीवन / सियाराम शरण गुप्त

No change in size, 05:55, 2 नवम्बर 2009
किंतु दूसरों के हित पल में
आवें अचल फोड़कर थल में;
एसा ऐसा शक्तिपूर्ण तन दो!
स्थान न क्यों नीचे ही पावें,
पर तप में ऊपर चढ जावें,
गिरकर भी क्षिति को सरसावें
एसा ऐसा सत्साहस धन दो! </poem>
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