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|रचनाकार =मुनव्वर राना
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[[Category:ग़ज़ल]]{{KKCatGhazal}}<poem>रोने में इक ख़तरा है , तालाब नदी हो जाते हैंहंसना भी आसान नहीं है, लब ज़ख़्मी हो जाते हैं
हंसना भी आसान नहीं है लब ज़ख़्मी इस्टेसन से वापस आकर बूढ़ी आँखें सोचती हैंपत्ते देहाती रहते हैं, फल शहरी हो जाते हैं
बोझ उठाना शौक कहाँ है, मजबूरी का सौदा है
रहते-रहते इस्टेशन पर लोग कुली हो जाते हैं
इस्टेसन से वापस आकर बूढ़ी आँखें सोचती हैं पत्ते देहाती रहते हैं फल शहरी हो जाते हैं   बोझ उठाना शौक कहाँ है मजबूरी का सौदा है रहते - रहते इस्टेशन पर लोग कुली हो जाते हैं  सबसे हंसकर मिलिये-जुलिये , लेकिन इतना ध्यान रहे सबसे हंसकर मिलने वाले , रुसवा भी हो जाते हैं 
अपनी अना को बेच के अक्सर लुक़्म-ए-तर की चाहत में
 कैसे-कैसे सच्चे शाइर दरबारी हो जाते हैं</poem>
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