|संग्रह=कितनी नावों में कितनी बार / अज्ञेय
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यह अप्रत्याशित उजला
दिपती धूप-भरा उत्तर-वासन्ती दिन
जिस में फूलों के रंग
चौंक कर खिले,
पंछियों की बोली है ठिठकी-सी,हम साझा भोग सके होतेहोते—तू--तू-मैं--मैं—तो भी मैं इसे समूचा तुझ को भेंट चुका होता :
अब भी देता हूँ
(चौंका, ठिठका मैं)
उतना ही सहज, कदाचित् तेरे उतना ही ही अनजाने भी ।भी।ले, दिया गया यह :
एक छोड़ उस लौ को जो
एकान्त मुझे झुलसाती है ।है।</poem>