|संग्रह=कितनी नावों में कितनी बार / अज्ञेय
}}
{{KKCatKavita}}कि तुम <brpoem>कि तुम मेरा घर हो <br> यह मैं उस घर में रहते-रहते <br> बार-बार भूल जाता हूँ <br> या यों कहूँ कि याद ही कभी-कभी करता हूँ: <br> (जैसे कि यह <br> कि मैं साँस लेता हूँ:) <br> पर यह <br> कि तुम उस मेरे घर की <br> एक मात्र खिड़की हो <br> जिस में से मैं दुनिया को, जीवन को, <br> :प्रकाश को देखता हूँ, पहचानता हूँ, <br> —जिस में से मैं रूप, सुर, बास, रस <br> :पाता और पीता हूँ— <br> जो वस्तुएँ हैं, उन के अस्तित्व को छूता हूँ, <br> —जिस में से ही <br> मैं उस सब को भोगता हूँ जिस के सहारे मैं जीता हूँ <br> —जिस में से उलीच कर मैं <br> अपने ही होने के द्रव को अपने में भरता हूँ— <br> यह मैं कभी नहीं भूलता: <br> क्योंकि उसी खिड़की में से हाथ बढ़ा कर <br> मैं अपनी अस्मिता को पकड़े हूँ— <br> कैसी कड़ी कौली में जकड़े हूँ— <br> और तुम—तुम्हीं मेरा वह मेरा समर्थ हाथ हो <br> तुम जो सोते-जागते, जाने-अनजाने <br>
मेरे साथ हो।
</poem>