भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"फ़ोकिस में ओदिपौस / अज्ञेय" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
 
(एक अन्य सदस्य द्वारा किया गया बीच का एक अवतरण नहीं दर्शाया गया)
पंक्ति 4: पंक्ति 4:
 
|संग्रह=कितनी नावों में कितनी बार / अज्ञेय
 
|संग्रह=कितनी नावों में कितनी बार / अज्ञेय
 
}}
 
}}
 
+
{{KKCatKavita}}
राही, चौराहों पर बचना! <br>
+
<poem>
राहें यहाँ मिली हैं, बढ़ कर अलग-अलग हो जाएंगी <br>
+
राही, चौराहों पर बचना!
जिस को जो मंज़िल हो आगे-पीछे पाएंगी <br>
+
राहें यहाँ मिली हैं, बढ़ कर अलग-अलग हो जाएँगी 
पर इन चौराहों पर औचक एक झुटपुटे में <br>
+
जिस को जो मंज़िल हो आगे-पीछे पाएँगी 
अनपहचाने पितर कभी मिल जाते हैं: <br>
+
पर इन चौराहों पर औचक एक झुटपुटे में
उन की ललकारों से आदिम रूद्र-भाव जग आते हैं, <br>
+
अनपहचाने पितर कभी मिल जाते हैं:
कभी पुरानी सन्धि-वाणियाँ <br>
+
उन की ललकारों से आदिम रूद्र-भाव जग आते हैं,
और पुराने मानस की धुंधली घाटी की अन्ध गुफा को <br>
+
कभी पुरानी सन्धि-वाणियाँ
एकाएक गुंजा जाती है; <br>
+
और पुराने मानस की धुंधली घाटी की अन्ध गुफा को
काली आदिम सत्ताएँ नागिन-सी <br>
+
एकाएक गुंजा जाती हैं;
कुचले शीश उठाती है-- <br>
+
काली आदिम सत्ताएँ नागिन-सी
राही <br>
+
कुचले शीश उठाती हैं— 
शापों की गुंजलक में बंध जाता है: <br>
+
राही
फिर <br>
+
शापों की गुंजलक में बंध जाता है:
जिस पाप-कर्म से वह आजीवन भागा था, <br>
+
फिर  
वह एकाएक <br>
+
जिस पाप-कर्म से वह आजीवन भागा था,
अनिच्छुक हाथों से सध जाता है। <br> <br>
+
वह एकाएक
 +
अनिच्छुक हाथों से सध जाता है।  
  
राही चौराहों से बचना! <br>
+
राही चौराहों से बचना!
वहाँ ठूँठ पेड़ों की ओट <br>
+
वहाँ ठूँठ पेड़ों की ओट
घात बैठी रहती हैं <br>
+
घात बैठी रहती हैं
जीर्ण रूढ़ियाँ <br>
+
जीर्ण रूढ़ियाँ
हवा में मंडराते संचित अनिष्ट, उन्माद, भ्रान्तियाँ-- <br>
+
हवा में मंडराते संचित अनिष्ट, उन्माद, भ्रान्तियाँ— 
जो सब, जो सब <br>
+
जो सब, जो सब
राही के पद-रव से ही बल पा, <br>
+
राही के पद-रव से ही बल पा,
सहसा कस आती हैं <br>
+
सहसा कस आती हैं
बिछे, तने, झूले फन्दों-सी बेपनाह! <br>
+
बिछे, तने, झूले फन्दों-सी बेपनाह!
राही, चौराहों पर <br>
+
राही, चौराहों पर
बचना। <br> <br> <br>
+
बचना।    
  
देल्फ़ी, ग्रीस]
+
<span style="font-size:14px">देल्फ़ी, ग्रीस]</span>
 +
</poem>

21:46, 3 नवम्बर 2009 के समय का अवतरण

राही, चौराहों पर बचना!
राहें यहाँ मिली हैं, बढ़ कर अलग-अलग हो जाएँगी
जिस को जो मंज़िल हो आगे-पीछे पाएँगी
पर इन चौराहों पर औचक एक झुटपुटे में
अनपहचाने पितर कभी मिल जाते हैं:
उन की ललकारों से आदिम रूद्र-भाव जग आते हैं,
कभी पुरानी सन्धि-वाणियाँ
और पुराने मानस की धुंधली घाटी की अन्ध गुफा को
एकाएक गुंजा जाती हैं;
काली आदिम सत्ताएँ नागिन-सी
कुचले शीश उठाती हैं—
राही
शापों की गुंजलक में बंध जाता है:
फिर
जिस पाप-कर्म से वह आजीवन भागा था,
वह एकाएक
अनिच्छुक हाथों से सध जाता है।

राही चौराहों से बचना!
वहाँ ठूँठ पेड़ों की ओट
घात बैठी रहती हैं
जीर्ण रूढ़ियाँ
हवा में मंडराते संचित अनिष्ट, उन्माद, भ्रान्तियाँ—
जो सब, जो सब
राही के पद-रव से ही बल पा,
सहसा कस आती हैं
बिछे, तने, झूले फन्दों-सी बेपनाह!
राही, चौराहों पर
बचना।

देल्फ़ी, ग्रीस]