"विदा के चौराहे पर: अनुचिन्तन / अज्ञेय" के अवतरणों में अंतर
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− | कोई अपना नहीं कि | + | कोई अपना नहीं कि |
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− | हैं बीच-बीच में अंतराल | + | हैं बीच-बीच में अंतराल |
− | जिन में हैं झीने जाल | + | जिन में हैं झीने जाल |
− | मिलानेवाले कुछ, कुछ दूरी और दिखानेवाले | + | मिलानेवाले कुछ, कुछ दूरी और दिखानेवाले |
− | पर सच में | + | पर सच में |
− | सब सपने हैं। | + | सब सपने हैं। |
− | पथ लम्बा है: मानो तो वही मधुर है | + | पथ लम्बा है: मानो तो वही मधुर है |
− | या मत मानो तो वह भी सच्चा है। | + | या मत मानो तो वह भी सच्चा है। |
− | यों सच्चे हैं भ्रम भी, सपने भी | + | यों सच्चे हैं भ्रम भी, सपने भी |
− | सच्चे हैं | + | सच्चे हैं अजनबी—और अपने भी। |
− | देश-देश की रंग-रंग की मिट्टी है: | + | देश-देश की रंग-रंग की मिट्टी है: |
− | हर दिक् का अपना-अपना है आलोक-स्रोत | + | हर दिक् का अपना-अपना है आलोक-स्रोत |
− | दिक्काल-जाल के पार विशद निरवधि सूने में | + | दिक्काल-जाल के पार विशद निरवधि सूने में |
− | फहराता पाल चेतना की, बढ़ता जाता है प्राण-पोत। | + | फहराता पाल चेतना की, बढ़ता जाता है प्राण-पोत। |
− | हैं घाट? स्वयं मैं क्या हूँ? है बाट? देखता हूँ मैं ही। | + | हैं घाट? स्वयं मैं क्या हूँ? है बाट? देखता हूँ मैं ही। |
− | पतवार? वही जो एकरूप है सब | + | पतवार? वही जो एकरूप है सब से— |
− | इयत्ता का विराट्। | + | इयत्ता का विराट्। |
− | यों | + | यों घर—जो पीछे छूटा था— |
− | वह दूर पार फिर बनता है | + | वह दूर पार फिर बनता है |
− | यों | + | यों भ्रम—यों सपना—यों चित्-सत्य |
− | लीक-लीक पथ के डोरों से | + | लीक-लीक पथ के डोरों से |
− | नया जाल फिर तनता है... < | + | नया जाल फिर तनता है... |
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21:51, 3 नवम्बर 2009 के समय का अवतरण
यह एक और घर
पीछे छूट गया,
एक और भ्रम
जो जब तक मीठा था
टूट गया।
कोई अपना नहीं कि
केवल सब अपने हैं:
हैं बीच-बीच में अंतराल
जिन में हैं झीने जाल
मिलानेवाले कुछ, कुछ दूरी और दिखानेवाले
पर सच में
सब सपने हैं।
पथ लम्बा है: मानो तो वही मधुर है
या मत मानो तो वह भी सच्चा है।
यों सच्चे हैं भ्रम भी, सपने भी
सच्चे हैं अजनबी—और अपने भी।
देश-देश की रंग-रंग की मिट्टी है:
हर दिक् का अपना-अपना है आलोक-स्रोत
दिक्काल-जाल के पार विशद निरवधि सूने में
फहराता पाल चेतना की, बढ़ता जाता है प्राण-पोत।
हैं घाट? स्वयं मैं क्या हूँ? है बाट? देखता हूँ मैं ही।
पतवार? वही जो एकरूप है सब से—
इयत्ता का विराट्।
यों घर—जो पीछे छूटा था—
वह दूर पार फिर बनता है
यों भ्रम—यों सपना—यों चित्-सत्य
लीक-लीक पथ के डोरों से
नया जाल फिर तनता है...