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जो रचा नहीं / अज्ञेय

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|संग्रह=कितनी नावों में कितनी बार / अज्ञेय
}}
{{KKCatKavita}}<poem>दिया सो दिया <br> उस का गर्व क्या, उसे याद भी फिर किया नहीं। <br> पर अब क्या करूँ <br> कि पास और कुछ बचा नहीं <br> सिवा इस दर्द के <br> जो मुझ से बड़ा है—इतना बड़ा है कि पचा नहीं— <br> बल्कि मुझ से अँचा नहीं— <br> इसे कहाँ धरूँ <br> जिसे देनेवाला भी मैं कौन हूँ <br> क्योंकि वह तो एक सच है <br> जिसें मैं तो क्या रचता— <br> :जो मुझी में अभी पूरा रचा नहीं! <br/poem>
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