|संग्रह=अब भी वसंत को तुम्हारी जरूरत है / अनामिका
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संभव है, मैं एक राह बना रहा होऊँ एक ठोस चट्टान में—
चक़मक़ परतों में, जैसे कि पड़ा हो अयस्क अकेले—
इतना भीतर चला आया हूँ कि मुझको रास्ता दिखाई नहीं देता
और मिलता नहीं कोई विस्तार: सब मेरे चेहरे के नज़दीक है—
और जो कुछ भी है मेरे चेहरे के नज़दीक—पत्थर है केवल।
संभव है, मैं एक राह बना रहा होऊँ एक ठोस चट्टान में—<br>चक़मक़ परतों तकलीफ़ में, जैसे कि पड़ा हो अयस्क अकेले—<br>इतना भीतर चला आया हूँ कि मुझको रास्ता दिखाई अब तक ज्ञान-वान कुछ नहीं देता<br>मिला— और मिलता नहीं कोई विस्तार: सब मेरे चेहरे के नज़दीक है—<br>यह भीमाकार-सा अंधेरा और जो कुछ भी छोटा करता है मुझे। मेरे चेहरे के नज़दीक—पत्थर है केवल।<br><br>स्वामी बन लो, बनो तुम भयानक और भीतर बैठो।
तकलीफ़ में अब तक ज्ञान-वान कुछ नहीं मिला—<br>यह भीमाकार-सा अंधेरा<br>छोटा करता है मुझे।<br>मेरे स्वामी बन लो, बनो तुम भयानक और भीतर बैठो।<br><br> तब तुम्हारा बड़ा बदलाव मुझमें घटित होगा<br>और मेरी भीषण शोकातुर चीख़<br>होगी घटित तुममें।<br/poem>