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कोई / अरुण कमल

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|रचनाकार=अरुण कमल
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कोई भी तो नहीं
 
पर कोई है ज़रूर
 
जो मेरे बोलते चुप हो जाता है
 
पानी में घड़ा डुबोते जो आवाज़ हो रही है
 
वो आख़िर कहाँ से आ रही है
 
एक रोशनी जो मेरे ताकते धूर बन जाती है
 
कहीं कोई न था कोई भी
 
एक चिड़िया ढेले-सी गिरी आ रही थी
 
आसमान का पूरा बोझ लिए
 
हवा डोर की तरह लिपटती लटाई पर
 
पेड़ जैसे कोई गरारा रेशम का
 
लगा जैसे बारिश हो रही है बाहर
 
पर धूप थी इतनी
 
कि पुतलियाँ सिकुड़ गईं।
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