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"शिकस्त-ए-शौक को तामील-ए-आरजू कहिये / अली सरदार जाफ़री" के अवतरणों में अंतर

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शिकस्त-ए-शौक को तामील-ए-आरजू कहिये
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शिकस्त-ए-शौक को तामील-ए-आरजू कहिये<br>
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ख़याल-ए-यार को दीजिये विसाल-ए-यार का नाम
के तिश्नगी को भी पैमान--सुबू कहिये<br><br>
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शब-ए-फिराक को गेसू--मुश्कबू कहिये
  
ख़याल-ए-यार को दीजिये विसाल--यार का नाम<br>
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चराग-ए-अंजुमन हैरत--नजारा हैं
शब-ए-फिराक को गेसू-ए-मुश्कबू कहिये<br><br>
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लालारू जिनहें अब बाब-ए-आरजू कहिये
  
चराग-ए-अंजुमन हैरत-ओ-नजारा हैं<br>
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शिकायतें भी बहुत हैं हिकायतें भी बहुत
लालारू जिनहें अब बाब--आरजू कहिये<br><br>
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मजा तो जब है के यारों के रु--रू कहिये
  
शिकायतें भी बहुत हैं हिकायतें भी बहुत<br>
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महक रही है गज़ल जिक्र-ए-जुल्फ-ए-खुबाँ से
मजा तो जब है के यारों के रु-ब-रू कहिये<br><br>
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नसीम-ए-सुब्ह की मानिंद कू-ब-कू कहिये
  
महक रही है गज़ल जिक्र-ए-जुल्फ-ए-खुबाँ से<br>
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ऐ हुक्म कीजिये फिर खंजरों की दिलजारी
नसीम-ए-सुब्ह की मानिंद कू-ब-कू कहिये<br><br>
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जहाँ-ए-जख्म से अफसाना-ए-गुलू कहिये
  
ऐ हुक्म कीजिये फिर खंजरों की दिलजारी<br>
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जुबाँ-ए-शोख से करते है पुरशिश-ए-अहवाल
जहाँ-ए-जख्म से अफसाना-ए-गुलू कहिये<br><br>
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और उसके बाद ये कहते हैं आरजू कहिये
  
जुबाँ-ए-शोख से करते है पुरशिश-ए-अहवाल<br>
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है जख्म जख्म मगर क्यूँ ना जानिये उसे फूल
और उसके बाद ये कहते हैं आरजू कहिये<br><br>
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लहू लहू है मगर क्यूँ उसे लहू कहिये
  
है जख्म जख्म मगर क्यूँ ना जानिये उसे फूल<br>
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जहाँ जहाँ भी खिजाँ है वहीं वहीं है बहार
लहू लहू है मगर क्यूँ उसे लहू कहिये<br><br>
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चमन चमन यही अफसाना-ए-नुमू कहिये
  
जहाँ जहाँ भी खिजाँ है वहीं वहीं है बहार<br>
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जमीँ को दीजिये दिल-ए-मुद्दा तलब का पयाम
चमन चमन यही अफसाना-ए-नुमू कहिये<br><br>
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खिजाँ को वसत-ए-दामाँ-ए-आरजू कहिये
  
जमीँ को दीजिये दिल-ए-मुद्दा तलब का पयाम<br>
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साँवरिये गज़ल अपनी बयाँ-ए-गालिब से
खिजाँ को वसत-ए-दामाँ-ए-आरजू कहिये<br><br>
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जबाँ-ए-मीर में भी हाँ कभू कभू कहिये
  
साँवरिये गज़ल अपनी बयाँ-ए-गालिब से<br>
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मगर वो हर्फ धड़कने लगे जो दिल की तरह
जबाँ-ए-मीर में भी हाँ कभू कभू कहिये<br><br>
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मगर वो बात जिसे अपनी गुफ्तगू कहिये
  
मगर वो हर्फ धड़कने लगे जो दिल की तरह<br>
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मगर वो आँख के जिसमें निगाह अपनी हो
मगर वो बात जिसे अपनी गुफ्तगू कहिये<br><br>
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मगर वो दिल जिसे अपनी जुस्तजू कहिये
  
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किसी के नाम पे सरदार खो चुके हैं जिसे  
मगर वो दिल जिसे अपनी जुस्तजू कहिये<br><br>
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उसी को अह्ल-ए-तमन्ना की आबरू कहिये
 
उसी को अह्ल-ए-तमन्ना की आबरू कहिये
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23:39, 5 नवम्बर 2009 के समय का अवतरण

शिकस्त-ए-शौक को तामील-ए-आरजू कहिये
के तिश्नगी को भी पैमान-ओ-सुबू कहिये

ख़याल-ए-यार को दीजिये विसाल-ए-यार का नाम
शब-ए-फिराक को गेसू-ए-मुश्कबू कहिये

चराग-ए-अंजुमन हैरत-ओ-नजारा हैं
लालारू जिनहें अब बाब-ए-आरजू कहिये

शिकायतें भी बहुत हैं हिकायतें भी बहुत
मजा तो जब है के यारों के रु-ब-रू कहिये

महक रही है गज़ल जिक्र-ए-जुल्फ-ए-खुबाँ से
नसीम-ए-सुब्ह की मानिंद कू-ब-कू कहिये

ऐ हुक्म कीजिये फिर खंजरों की दिलजारी
जहाँ-ए-जख्म से अफसाना-ए-गुलू कहिये

जुबाँ-ए-शोख से करते है पुरशिश-ए-अहवाल
और उसके बाद ये कहते हैं आरजू कहिये

है जख्म जख्म मगर क्यूँ ना जानिये उसे फूल
लहू लहू है मगर क्यूँ उसे लहू कहिये

जहाँ जहाँ भी खिजाँ है वहीं वहीं है बहार
चमन चमन यही अफसाना-ए-नुमू कहिये

जमीँ को दीजिये दिल-ए-मुद्दा तलब का पयाम
खिजाँ को वसत-ए-दामाँ-ए-आरजू कहिये

साँवरिये गज़ल अपनी बयाँ-ए-गालिब से
जबाँ-ए-मीर में भी हाँ कभू कभू कहिये

मगर वो हर्फ धड़कने लगे जो दिल की तरह
मगर वो बात जिसे अपनी गुफ्तगू कहिये

मगर वो आँख के जिसमें निगाह अपनी हो
मगर वो दिल जिसे अपनी जुस्तजू कहिये

किसी के नाम पे सरदार खो चुके हैं जिसे
उसी को अह्ल-ए-तमन्ना की आबरू कहिये