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{{KKRachna
|रचनाकार=अली सरदार जाफ़री
|संग्रह=मेरा सफ़र / अली सरदार जाफ़री
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'''ग़ज़ल४'''
 
 
कोई हो मौसम थम नहीं सकता रक़्से-जुनूँ दीवानों का
ज़ंज़ीरों ज़ंजीरों की झनकारों में शोरे-बहाराँ बाक़ी है
इश्क़ के मुजरिम ने ये मंज़र औ़ज़े-दार से देखा है
बर्गे-ज़र्द के साये में भी जूए-तरन्नुम जारी है
ये तो शिकस्ते-फ़स्ले-खि़ज़ाँ ख़िज़ाँ है, सौते-हज़ाराँ बाक़ी है
मुह्तसिबों<ref>धर्माधिकारी</ref> की ख़ुश्क़ी-ए-दिल पर एक ज़माना हँसता है
तरह तर है दामन और वक़ारे-बादा-गुसाराँ<ref>मदिरापान करनेवालों की गरिमा</ref> बाक़ी है
फूल-से चेहरे, चाँद-से मुखड़े नज़रों से रूपोश हुए