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बँटवारे के बरस | बँटवारे के बरस |
22:21, 6 नवम्बर 2009 के समय का अवतरण
बँटवारे के बरस
अगस्त की एक भीगी शाम
बाहगा सीमा पर
लाशों से लदी गाड़ी रुकी थी
सीमा के एस पार
भारतीय अमले ने
माँस-मज्जा के ढेरों को संभाला था
तब उस नीम – वेहोश बच्चे को लगा था
कि सूरज कोई भूत था
जिसका मुँह काला था
कोई बोला देखना, इन मुर्दों में
शायद वह बच्चा ज़िन्दा है
किसी ने उसे घसीटा
किसी ने हिलाया था
तब दस बर्षीय उस बालक ने
शाम की धूप को
अपनी आँखों पर
महसूस किया था -
सूरज काले मुँह वाला भूत ही नहीं
लहराते ताँबे का कोई कटोरा भी है
अभी कुछ देर पहले ही
लाहौर ने उसके एक कान में
अल्हाह-हू-अकबर की आवाज़ों का
पूरा कुँआ उतारा था
अब वाहगा दूसरे कान में
हर –हर-महादेव और बोले सो निहाल
के ताल भर रहा था
तभी उस नन्हें बच्चे ने देखा
नल से पानी लेता
तहमत वाला एक सहमा हुआ युवक
भीड़ ने ईंट-पत्थर उठाकर
भदद-भदद भुराता कर दिया
और बैंच पर बैठी उसकी औरत को
बुर्का खींचकर बेपर्द कर दिया
परी कथाओं के संसार से बाहर निकलकर-तब–
बच्चे ने पहली बार जाना था
कि सीमा के इधर या उधर
इंसान कितना कमज़ोर है!
हैवान कितना मुँहज़ोर है!
रिम-झिम बारिश में
अकेला एक बच्चा
कैंप के क्यू में
चिलचिलाती धूप में खड़ा है
लंगर में मक्का की रोटी खा रहा है
एक बाबा की गठरी उठा रहा है
सड़क पर चलते, हथेली पर टके1 गिन रहा है
“बच्च के ओय मुंडिया!”
ताँगे वाला उसे बचा रहा है
और ग्यारह बरस का किशोर
बच के निकलने के लिए
एक बार फिर प्लेटफॉर्म पर है
तैयार ग़ाड़ी में सवार
सोचता है बिना टिकट का यात्री--
डिब्बे की छत पर कितने हैं लोग?
गिरेगा कोई तो उठाएगा कौन?
आँख खुलते ही—खाली है डिब्बा
उतरता है तो उकडूँ- सा गिर जता है
एक बुढ़िया ने उसे उठाया है
विठाकर चाय का गिरता तिलास थमाया है
दो पूरियाँ भी खिलाई हैं
बच्चे की भूरी आँखें मुस्कराई हैं
यह औरत कौन है?
किसकी माँ है यह?
छुक-छुक रेल
पहाड़ियाँ चढ़ रही है
बेजी2 ने उसके लिए टिकट भी ली है
गाड़ी से उतरकर वह दर-बदर भटक रहा है
लारियाँ धो रहा है
हँस रहा है, रो रहा है
गिर रहा है खड़ा हो रहा है
फेरी लगा रहा है
अड्डा जमा रहा है
बेजी को अस्पताल ले जा रहा है
उन्होंने उसके लिए
पाराचिनार की एक परी देखी है
है तो पगली-सी
बोलती कितना ऊँचा है!
बजा-गाजा-शादी-बच्चे!
उसकी दोनों पुत्रियां बीडस में पढ़ी हैं
अच्छे घरों में चढ़ीं2 हैं
उसने भी बेटियाँ देकर बेटे पाये हैं
अभी-अभी गोपाल सिंह और नानक चंद
ससुराल आए हैं
उसे बाज़ार जाना है
कितना सामान लागा है
मगर उसकी पगली बीवी
उसे डाँट पिलाती है
बिना काजल के काली आँखें नचाती है—
देखते है नहीं! बाहर हो रहा है बलवा!
आज नहीं जाना बाज़ार!
उसके दोनों जमाई
हैरान-परेशान
इक दूजे का धर्म बाँचते
गोपाल तो ‘सिंह’ है
और नानक है ‘चन्द’!
सन सैंतालिस के बाद
सैंतालिस साल के इस आदमी को
महसूस होता है
कि वह फिर से दस वर्षीय बालक बनकर
प्लेटफॉर्म पर खड़ा है
और एक बार फिर
उसकी बेटियाँ
अपने आदिम लिबास में
भीड़ का शिकार होने जा रही है
और प्लेटफॉर्म के दोनों तरफ
खड़े हैं—
कसाई और भड़वे।