"कभी ऐ हक़ीक़त-ए- मुन्तज़र नज़र आ लिबास-ए-मजाज़ में / इक़बाल" के अवतरणों में अंतर
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15:07, 7 नवम्बर 2009 का अवतरण
कभी ऐ हक़ीक़त-ए-मुन्तज़र<ref>प्रतीक्षित सच्चाई </ref>! नज़र आ लिबास-ए-मजाज़ में के हज़ारों सज्दे तड़प रहे हैं तेरी जबीन-ए-नियाज़ में
तरब आशना-ए-ख़रोश हो तू नवा है महरम-ए-गोश हो वो सुरूर क्या के छाया हुआ हो सुकूत-ए-पर्दा-ओ-साज़ में
तू बचा बचा के न रख इसे तेरा आईना है वो आईना के शिकस्ता हो तो अज़ीज़तर है निगाह-ए-आईना-साज़ में
दम-ए-तौफ़ कर मक-ए-शम्मा न ये कहा के वो अस्र-ए-कोहन न तेरी हिकायत-ए-सोज़ में न मेरी हदीस-ए-गुदाज़ में
न कहीं जहाँ में अमन मिली जो अमन मिली तो कहाँ मिली मेरे जुर्म-ए-ख़ानाख़राब को तेरे अज़ो-ए-बंदा-नवाज़ में
न वो इश्क़ में रहीं गर्मियाँ न वो हुस्न में रहीं शोख़ियाँ न वो ग़ज़नवी में तड़प रही न वो ख़म है ज़ुल्फ़-ए-अयाज़ में
जो मैं सर-ब-सज्दा कभी हुआ तो ज़मीं से आने लगी सदा तेरा दिल तो है सनम-आशनाअ तुझे क्या मिलेगा नमाज़ में </poem>