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|रचनाकार=अविनाश
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<Poem>
हमारे दोस्त कुछ ऐसे हैं
जो दरिया कहने पर समझते हैं कि हम किसी कहानी की बात कर रहे हैं
यहाँ तक कि गोश्त कहने पर उन्हें आती है उबकाई
जबकि हजारोंहज़ारों-हजार हज़ार बकरों-भैंसों को
कटते हुए देखकर भी
वे गश नहीं खाते
शायद इंसानों के मरने का समाचार भी उन्हें वक्त वक़्त पर खाने से मना नहीं करता
हमारे गाँव में भी अब बोली जाने लगी है हिंदी
तुम्हारी हिंदी में सरहद की लकीरें मिट रही हैं
ये ठीक नहीं है
पिता खाने की थाली फेंक देते हैं
बहनें आना छोड़ देती हैं
पड़ोसी देखकर बचने की कोशिश करते हैं
मैं अपनी हिंदी में खोजना चाहता हूं हूँ गाँव
एक शहर जहाँ दर्जनों तहजीबें हैं
वे सारे मुल्क़ जहाँ हमारे अपने बसे हुए हैं
दोस्तों की किनाराक़शी मंजूर मंज़ूर हैमंजूर मंज़ूर है हमारे अपने छोड़ जाएँ हमें
मुझे तो अब गुजराती भी हिंदी-सी लगने लगी है
‘वैष्णव जन तो तेणे कहिए जे
पीड़ पीर परायी जाणी रे’
हम जितना मुलायम रखेंगे अपनी जबान
कितना मर्मांतक है दुनिया भर के युद्धों का इतिहास!
</poem>