|संग्रह=शहर अब भी संभावना है / अशोक वाजपेयी
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{{KKCatKavita}}<poem>तुम ऋतुओं को पसन्द करती हो <br>और आकाश में<br>किसी-न-किसी की प्रतीक्षा करती हो –<br>तुम्हारी बाँहें ऋतुओं की तरह युवा हैं <br>तुम्हारे कितने जीवित जल <br>तुम्हे घेरते ही जा रहे हैं।<br>और तुम हो कि फिर खड़ी हो <br>अलसायी; धूप-तपा मुख लिये<br>एक नये झरने का कलरव सुनतीं<br>
-एक घाटी की पूरी हरी महिमा के साथ !
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