भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"कुछ पंक्तियाँ / असद ज़ैदी" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
(New page: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=असद ज़ैदी }} गिरते गिरते गिरते आख़िरश हम हो जाते हैं घा...)
 
 
(एक अन्य सदस्य द्वारा किया गया बीच का एक अवतरण नहीं दर्शाया गया)
पंक्ति 2: पंक्ति 2:
 
{{KKRachna
 
{{KKRachna
 
|रचनाकार=असद ज़ैदी
 
|रचनाकार=असद ज़ैदी
 +
|संग्रह=कविता का जीवन / असद ज़ैदी
 
}}
 
}}
 
+
{{KKCatKavita}}
 
+
<poem>
 
गिरते गिरते गिरते आख़िरश हम हो जाते हैं घास
 
गिरते गिरते गिरते आख़िरश हम हो जाते हैं घास
 
 
अपनी कमर तक उठकर गिरती हुई चरागाह में एक दिन
 
अपनी कमर तक उठकर गिरती हुई चरागाह में एक दिन
 
 
टीलों पर झण्डियाँ दिखाती प्रतीक्षा करती है हवा
 
टीलों पर झण्डियाँ दिखाती प्रतीक्षा करती है हवा
 
  
 
छोटी सी सूचना छपाकर पत्थर लुढ़कते हैं
 
छोटी सी सूचना छपाकर पत्थर लुढ़कते हैं
 
 
बेख़बर लोगों में हैरानी मचाते हुए : हैराँ अख़बार को
 
बेख़बर लोगों में हैरानी मचाते हुए : हैराँ अख़बार को
 
 
आना पड़ता है इन्हीं टीलों तक सड़कों पर धूल में
 
आना पड़ता है इन्हीं टीलों तक सड़कों पर धूल में
 
 
निर्विकार हो जाना होता है
 
निर्विकार हो जाना होता है
 
 
इतवारी संस्करणों के लेखक बार बार करते हैं
 
इतवारी संस्करणों के लेखक बार बार करते हैं
 
 
पेड़ों की शहादत में गुनाहों का इक़बाल
 
पेड़ों की शहादत में गुनाहों का इक़बाल
 
  
 
ज़मीन में घुसकर तमाम खदानें चर जाने के बाद
 
ज़मीन में घुसकर तमाम खदानें चर जाने के बाद
 
 
शान्ति उगती है पृथ्वी पर घास बन कर
 
शान्ति उगती है पृथ्वी पर घास बन कर
 +
</poem>

19:01, 8 नवम्बर 2009 के समय का अवतरण

गिरते गिरते गिरते आख़िरश हम हो जाते हैं घास
अपनी कमर तक उठकर गिरती हुई चरागाह में एक दिन
टीलों पर झण्डियाँ दिखाती प्रतीक्षा करती है हवा

छोटी सी सूचना छपाकर पत्थर लुढ़कते हैं
बेख़बर लोगों में हैरानी मचाते हुए : हैराँ अख़बार को
आना पड़ता है इन्हीं टीलों तक सड़कों पर धूल में
निर्विकार हो जाना होता है
इतवारी संस्करणों के लेखक बार बार करते हैं
पेड़ों की शहादत में गुनाहों का इक़बाल

ज़मीन में घुसकर तमाम खदानें चर जाने के बाद
शान्ति उगती है पृथ्वी पर घास बन कर