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|संग्रह=शोकनाच / आर. चेतनक्रांति
}}
{{KKCatKavita}}<poem>
वे तुम्हें मज़बूर करेंगे
 
कि तुम्हारा भी एक रूप हो निश्चित
 
कि तुम्हारा भी हो एक दावा
 
कि हो तुम्हारा भी एक वादा
 
कि तुम्हारा भी एक स्टैण्ड हो
 
कि तुम्हारी भी हो कोई `से´
 
वे तुम्हें मज़बूर करेंगे
 
कि रुको
 
और, कि या तो हाँ कहो या ना
 
कि चुप मत रहो
 
कि कुछ भी बोलो–अगर झूठ है तो वही सही
 
वे तुम्हें मज़बूर करेंगे
 
कभी गालियों से
 
कभी प्यार से
 
कभी गुस्से से
 
कभी मार से
 
कभी ठंडी उदासीनता से तुम्हें तुम्हारे कोने में अकेला छोड़
 
दीवार पीछे खड़े हो इन्तज़ार करेंगे
 
वे तुम्हें अपने धैर्य से मज़बूर करेंगे
 
वे तुम्हें मज़बूर करेंगे
 
कभी कहेंगे कि तुम फ़ालतू हो,
 
कि ऐसा है तो तुम्हें मर जाना चाहिए
 
वे तुम्हें अपने ठोस फैसलों से मज़बूर करेंगे
 
वे तुम्हारे सामने एक शीशा रख देंगे
 
और कहेंगे कि इससे डरो जो तुम्हें इसमें दिख रहा है
 
वे तुम्हें मज़बूर करेंगे अपनी कल्पना से
 
और कल्पना की प्लानिंग से
 
वे कहेंगे कि तुम ईश्वर हो
 
बल्कि उससे भी ज्यादा ताकतवर
 
आओ और हम पर राज करो
 
वे तुम्हें मज़बूर करेंगे अपने समर्पण से।
     {{KKGlobal}}{{KKRachna|रचनाकार=आर. चेतनक्रांति |संग्रह=शोकनाच </ आर. चेतनक्रांति}} छटपटाकर जगह बदलना मैंने जब साèाुता से कहा–विदाऔर घूमकर दुर्जनता की बा¡ह गहीवह कोई आम-सा दिन थाखूब सारी खूबियों की खूब सारी गलियों मेंआवाजाही तेज थीमिन्दर के चबूतरे परएक चिन्तित आदमीसिर झुकाए, आ¡खें मू¡देभूखों को भोजन बा¡ट रहा थावह इतना डर गया थाकि भूखे के हाथ का¡पते तो पत्तल मु¡ह पै दे मारता बैठे-बैठेएक लम्बा अरसा बीत गया थामेरे गुस्से की नोकें एक-एक कर डूबती जा रही थींअसहमत होने की इच्छा पिलपिली हो गई थीदिल जरा-जरा-सी बात पर उछल पड़ता थाऔर खुदयकीनी पिघले गुड़ की तरह नसों में भर गई थी चलते-चलते भीतर कुछ कौंèाता थाऔर खो जाता थावक्“त की पाबन्दीबुजुगो± का सम्मान/सफेद चीजों का दबदबादफ्तर की ईमानदारीएक अच्छे देश का नागरिक होने की जिम्मेदारीऔर दोहरे-तिहरे अथो±वाली अर्थगभाZ कविताए¡पिचकारी में पानी की तरहहर जगह मेरे भीतर भर गई थींकोई जरा-सा कहीं दबातातो अच्छाई अच्छों की पीक की तरहया प्राणप्यारी कुंठा के फोड़े की मवाद की तरहफक् से फुदक पड़ती  लोग मुझसे खुश थे और अपना स्नेहभाजन बनाने को देखते ही टूट पड़ते पालतुओं को पालने का शौक आम था जंगलियों के लिए चििड़याघर थे बस एक वीरप्पन था जो जंगल में बना हुआ था तभी बस शरारतन,और थोड़ा ऊब की प्रेरणा सेऔर इसलिए भी डरकर, कि कहीं भगवान ही न हो जाऊ¡मैंनेभलमनसाहत की दमघोंटू अगरबत्तियों सेगोश्त की भूरी झालरों में सजी बैठी मनुष्यता सेसफेद फालतू मांस से लदे अमीर बच्चे की आतंकवादी सुन्दरता सेछुटकारा पाना शुरू कियापवित्राता के बौने दरवाजों की मर्यादा से निर्भय होमैं èाड़èाड़ाकर चलाजैसे सुन्दर कारों के बीच ट्रक जाता हैऔर कम्युनिटी सेंटर से बाहर हो गया, जहा¡ `बिगब्रांड´ कूल्हों और अच्छाई के भरोसे दुभाZग्य से लापरवाह चेहरों की सभा थी और दरवाजे में वह मरघिल्ला चौकीदार ईमान-की-हवा-में-तराश-दी-गई-मूर्ति-सा अपने तबके के अहिंò बेईमानों की जामातलाशी कर रहा था नोटिसबोर्ड पर लिखा था कि देवताओं की पहरेदारी नहीं करता जो वो हर कमजोर चोर होता है सड़क पर मैंनेबदबूदार खुली-आम हवा मेंलम्बी सा¡स भरी और देखाèार्मग्रन्थों और कानून की किताबों की पोशाकें पहनेअच्छाई के पहरेदारों का जुलूस चला जाता था बीचोंबीच अच्छाई थीलम्बा बुकाZ पहनेताकत को कमजोर बुरे लोगों की नजरों से बचातीसिंहासन की ओर बढ़ी जातीफट्-फट् फूटते गुब्बारोंऔर पटाखों के अच्छे, अलंघ्य शोर में सुरक्षितस्वच्छ शामियानों से गुजरतीचा¡दनियों पर जमा-जमाकर पैर èारतीशक्ति के साथआमिन्त्रात करती लेकिन मैं बाफैसलाकोढ़िन कमजोरी के जर्जर आ¡चल में हटता हुआ पीछेलड़ता मन में अच्छाई के ज्वार सेताकत के भड़कते बुखार सेकरता ही गया विदा उन्हें एक-एक करजो जाते थेअच्छेपन की रौशन दुनिया मेंअच्छाई के राजदण्ड से शासन करने। {{KKGlobal}}{{KKRachna|रचनाकार=आर. चेतनक्रांति |संग्रह=शोकनाच / आर. चेतनक्रांति}} श्रद्धावादी वक्त में श्रद्धा का सूर्य शिखर पर थासबसे ठंडे मौसम में भी जो गर्माती रहती थी भीतर ही भीतरचपल चापलूसी की चलायमान चा¡दई गुफा में दहकती थी जो सतत, ठंडी अपराजेय वह आग अपनी नीली लपटों से झुलसाती सृष्टि को कि पिघल बह गया शरीरशरीर के डबरे में भर गयाबची बस एक आ¡ख तैरतीपूछतीबोल-बोलकर–कि श्रद्धा से लबालब इस महागार में है कोई सीट खालीबैठकर हिलने के लिएदमकते वक्तृत्व की ताल परझमाझम व्यक्तित्व की चाल पर ! कि हम अपने पहलों से थोड़े छोटेहम चाहते हैं किपहले से छोटी हमारी आज की दुनिया मेंहमें हमारी जगह मिले कि कल हम भीआज के मंच से छोटेएक मंच के मालिक होंगेश्रद्धा उपजाने की मशीन सेकातेंगे वहा¡ बैठ अपनी नाप से छोटे कपड़ेअपने बादवालों के लिए जितनी मेहनत हमने कीउससे कम मेहनत करने की सुविèाा देंगेअपने अनुजों कोसिखाए¡गे उन्हें इससे भी घोर अनुकरणऔर मनीषा जिसके जेबी संस्करणश्रद्धेय ने हमें दिएउन्हें हम आनेवाले उन जिज्ञासुओं कीउ¡गलियों पर बटन बनाकर èार देंगेकि वे जब चाहेंपा लें अपने पापों के तर्क सो, हे मानवी मेèाा के साकार पुरुषअपने असंख्य खम्भों वाले इस छोटे से दालान मेंहमें बताइए, कि अपनी इन योजनाओं के साथ हम कहा¡ बैठें ! हमें अभिनय करना पड़ता है परवाह काबीच बाजार, जब हम पकड़े जाते हैं,अपने अगलों को हम देंगे खूब सारा अ¡èोराकि सुस्थ, बाइत्मीनान बैठ वे सोच सकेंसबसे बकवास किसी मसले पर,मसलन मसला मालिक के मूड काफसलन फसला फालिक के फूड काहमसे भी ज्यादा सुलभ तुक उन्हें मिलेहर जंग वे जीतें और अंग भी न हिले आपने हमें दी सूक्तिया¡हम उन्हें दें कूक्तिया¡।  {{KKGlobal}}{{KKRachna|रचनाकार=आर. चेतनक्रांति |संग्रह=शोकनाच / आर. चेतनक्रांति}} आगे के बारे में एक ईष्र्याप्रसूत कविता वे तो बढ़े ही चले जा रहे थेआगे, और आगे और आगे के बारे में उनकी राय तय हो चुकी थीकि जहा¡ पीछेवालों की इच्छाए¡ जाकर पसर जाए¡कि जहा¡ आप दयनीयता पर क्रोèा करने को स्वतन्त्रा होंकि जहा¡ जमाने-भर की ईष्र्याए¡आपका रास्ता बुहारेंउस जगह को आगे कहते हैं वे आगे वहा¡दुनिया-भर की ईष्र्या पर मुटिया रहे थेऔर बीच-बीच में फोन करके पूछते थे, हैलो, अरे तुम कहा¡ ठहरे हुए हो ? रास्ता उन्हें अèयात्म की तरह लगता थाजैसे किसी को धर्म का डर लग जाता हैकि लीक छोड़करचाय की दूकान तक भी जातेतो `चलू¡-चलू¡´ से छका मारते एक किसी भी दिनवे उतरते नई दिल्ली रेलवे स्टेशन परऔर शहर के सबसे स्मार्ट रिक्शावाले कोरास्ता बताते हुए शहर पार करने लगतेकि जैसे बरसों से इसे जानते हों वे अपने भीतर और शहर मेंएक खाली कुआ¡ तलाश करतेजो उन्हें मिल जाता वे एक मकसद का आविष्कार करतेजो पिछले एक करोड़ साल से इस दुनिया में नहीं थावे किराए के पहले कमरे की कु¡आरी दीवार की तरहमु¡ह करके खड़े होते, और कहते–कि जो जा चुके हैं आगे, उन्हें मेरा सलाम भेजोकि मैं आ गया हू¡कि यह लकीर जिसे तुम रास्ता कहती होअब बढ़ती ही जाएगी, बढ़ती ही जाएगी मेरे पैरों के लिएकि मैं रुकने के लिए नहीं हू¡चलो, नीविबन्èा खोलो, झुको और खिड़की बन जाओ और ऊ¡चाइयों पर खुदाई शुरू कर देतेकि कु¡ओं को पाटना तो पहला काम थाकुए¡ जो लालसा के थे यू¡ एक करोड़ साल बादराजèाानी दिल्ली में एक और सृष्टि का निर्माण शुरू होता एक बौना आदमीआसमान के इस कोने से उस कोने तक तार बा¡èा देताकि यहा¡ मेरे कपड़े सूखेंगेभीड़ के मस्तक को खोखला कर एक अहाता निकाल देताकि यहा¡ मेरा स्कूटर, मेरी कार खड़े होंगेदुनिया के सारे आदमियों कोएक-के-ऊपर-एक चिपकाकर अन्तरिक्ष तक पहु¡चा देताकि इस सीढ़ी से कभी-कभी मैं इन्द्रलोकजाया करू¡गा–जस्ट फॉर ए चेंज और इन्द्रलोक पहु¡चकर अकसर वह फोन करता,पूछता, हैलो, अरे तुम कहा¡ अटक गए ? इस तरह इन छवियों से छन-छनकरजो आगे आता थावह लगभग-लगभग दिव्य थालगभग-लगभग एक तिलिस्मकि हर गली के हर मोड़ से उसके लिए रास्ता जाता थालेकिन सबके लिए नहींकि वह दुकानों-दुकानों बिकता था पुिड़या मेंपर सबके लिए नहीं कि वह कभी-कभी सन्तई हा¡क लगाता थाखड़ा हो बीच बजारलेकिन वह भी सबके लिए नहीं रहस्य यही थाकि वह सबका थालेकिन सबके लिए नहीं थाऐसे उस आगे की आ¡त में उतरे जाते थे कुछ–अंग्रेजी दवाई-से–तेज़ और रंगीनऔर कुछ अटक गए थे, ठीक मुहाने पर आकर कब्ज की तरहऔर सुनते थे कभी-कभीपब्लिक बूथ पर हवा में लटकेचोंगे से रिसती हुई एक ह¡सती-सी आवाज़कि, हैलो··, अरे तुम कहा¡ फ¡से हो जानी !   {{KKGlobal}}{{KKRachna|रचनाकार=आर. चेतनक्रांति |संग्रह=शोकनाच / आर. चेतनक्रांति}}{{KKGlobal}}{{KKRachna|रचनाकार=आर. चेतनक्रांति |संग्रह=शोकनाच / आर. चेतनक्रांति}} खुशी के अन्तहीन सागर में खुशी खत्म ही नहीं होती कुछ ऐसी मस्ती छाई हैकि रात-भर नींद नहीं आई हैफिर भी सुबह चकाचक है िहृतिक रौशन प्यारा-प्यारामुन्नी की आ¡खों का तारा सेवानिवृत्त दद्दू कर्नल जगदीशबाल्कनी में जा¯गग करते-करते हुलसे–नायकहीन अ¡èोरे वक्तों का उजियारा आमलेट के मोटे पर्दे के पीछे सेबैंक मनीजर कुक्कू ने मुस्कान उठाई–वह देवता है खुशियों कासुन्दर सुबहों को जगानेवाला परीजाद देखो, मछलिया¡ उसकी देह की क्या कहती हैं–लिपििस्टक बहूबाथरूम के दरवाजे पर विजयपताका-सी लहराई पर्दे के इस कोने से उस कोने तक दरिया-सी बहती हैं– मम्मू बोलीं साठ साल की उजले दा¡तोंवाली मम्मूनए दौर का नया ककहरा सीख रही हैं–क ख ग घ च छ ट ठ, मेरी घटती उम्र का घटनाउसके ही शुभ-शिशु-आनन के दरशन का परतापमुझे यह मेरे खेल-खिलौने दिन वापस देता है इसके वह कई करोड़ लेता है–ज्ञानी मुन्ना बाबा ने खुशियों-भरी सभा में अपनी पोथी खोली `स्टारडस्ट के पण्डित´, चुप कर–दद्दू कड़केकीमत का मत जिक्र चला, ओ निèाZन माथेकीमत का जिक्र अशुभ होता हैतुझसे कभी किसी नेकिसी चीज की कीमत पूछी, बोलकीमत तो है शगुनअसल चीज है खुशी खुशी जो खत्म न हो–डाक्यूमेंट्री फिल्मों के निर्मातानिशाचरपापाघर के मुखियाखुशियों के कालीन पै पग èारते ही चहकेखुशी ही रचे उन्हेंजो करते लीड जमाने कोपिछले हफ्ते नहीं सुने थे वचनगुरु खुशदीप कमल सिंहानीजी के ?खुशी ने ही तो उसे रचा हैउस मुस्काते, उस उम्र घटानेवाले जादूगर नायक को और हमें भी तोरचा खुशी ने ही–बेडरूम से पर्दा फाड़भैया बड़े कृष्ण भक्तपोप्पर्टी डीलर, बोले–खुशी की गागर èारो सहेजशेष कृष्णा पर छोड़ोआ¡खें मू¡दो–अन्तर के संगीत में नाचोखुशी के अन्तहीन सागर के तल परहृदय से झरते जल पर डोलो(èाूम èााम èााम èाूम èामक èामक èान्न)कृष्ण हरे बोलो।   {{KKGlobal}}{{KKRachna|रचनाकार=आर. चेतनक्रांति |संग्रह=शोकनाच / आर. चेतनक्रांति}} खुदयव़+ीनी खुदयव़+ीनी भी एक चीज़ थीजैसे कोट और कमीज़बदन पर डालकर निकलते तो खुद-ब-खुद बावि़+यों से अलग हो जातेपैसों की तरह हम उसे कमाया करतेसहेजकर रखतेसन्तानों के लिए वह मोटे तले का जूता थीपुरानी घोड़े की नाल पर कसा हुआसब आवाज़ों के ऊपर जो ठहाक्-ठहाक् बजतामिमियाती हुई जातियों और पीढ़ियोंऔर देश के सुदूर कोनों से ढेर-ढेर संशय लिये आती भीड़ के मु¡ह पर पड़ता दुनिया के मु¡ह पर दरवाजा बन्द करहम उसका रियाज़ करतेशब्द बदलते, वाक्यों के तवाज़Äन में हेर-फेर करतेसा¡स में फू¡कार भरते पिंडलियों में इस्पात ढालतेविशेषज्ञों से सलाह लेतेऔर तब युद्ध पर निकलतेऔर जीतकर लौटते हारने की दशा में भी हम न हारतेहम सोचते कि हम जीत रहे हैंऔर हम जीत जाते खुदयव़+ीनी हमारीपोले ढोल के ऊपर चमड़े का शानदार खोल थीजब भी खतरा दिखाई देता,हम उसे बेतहाशा पीट डालतेऔर सारे समीकरण बदल जाते।    {{KKGlobal}}{{KKRachna|रचनाकार=आर. चेतनक्रांति |संग्रह=शोकनाच / आर. चेतनक्रांति}}मालिक का छत्ता आसमान काला पड़ रहा थाèारती नीलीजब हमारे मालिक नेअपने मासिक दौरे पर पहला व़+दम दफ्“तर में रखा दफ्“तर में बहुत सारी कोटरें थींशुरू में आदमी भरती किए गए थे मालिक गुजरा तोहर कोटर कसमसायी, थोड़ी-सी तड़कीजैसे आकाश में बिजली कौंèाी होऔर उनकी उपस्थिति को महसूस किया गया दूर से देखो तो समाज मèाुमिक्खयों के छत्ते की तरह दिखाई देता हैबन्द और ठोसलेकिन उसमें रास्ते होते हैं, बहुत सारे छेद मालिक उन सबसे गुजरकर यहा¡ तक पहु¡चा हैउसके बदन से शहद टपक रहा हैसब उसके पीछे हैंबस, एक चटखारा हम समर्थ थेऔर सुलझे हुएऔर नए फैशन के कपड़ों से सजेलेकिन उस क्षण हमारे ऊपरहमारा वश नहीं रह गया थाहम किसी भी पल सो सकते थेहम किसी भी पल रो सकते थे वे कुछ कह देते तोहम तालिया¡ बजाकर स्वागत करतेलेकिन वे कुछ नहीं बोलेऔर चले गए।    {{KKGlobal}}{{KKRachna|रचनाकार=आर. चेतनक्रांति |संग्रह=शोकनाच / आर. चेतनक्रांति}} बैंक में हम थे, हवा न थी बैंक में हम थे, हवा न थीहम सा¡सों की बची बासी हवा में सा¡सें लेकरअर्थव्यवस्था में जिन्दा थे जिन्दा थे इस ख्याल से भी कि हम बैंक में हैंऔर इससे भी कि देखो तो कितने होंगे जो बैंक में नहीं होतेहम विकासलीला की हत्शीला भूमि के बैंक में थे बैंक में हवा न थी, पैसे थेजैसे जंगल में हवा दिखती नहींपर जिन्दा रखती हैऐसे ही बैंक में पैसेदिखते नहीं, पर जिन्दा रखते हैं लेकिन हवा अपने जीवितों को गुस्सा नहीं देतीपैसे अपने जीवितों को गुस्सा देते हैं बैंक में हवा न थी, गुस्सा थाजिनकी पासबुक में पैसे ज्यादा थेउनका गुस्सा थाजिनकी पासबुक में कम थेउनके ऊपर गुस्सा थाउनके ऊपर बैंक के कम्प्यूटरों का भी गुस्सा थावे ढों की आवाज के साथ चिड़चिड़ाकर ह¡सते थे बैंक में हवा न थी, कम्प्यूटर थेऔर हर कम्प्यूटर के साथकॉर्बन कॉपी की तरह नत्थी एक क्लर्क थाजिनकी पासबुक भारी थीउन्हें देख वह भी रिरियाता थाजिनकी हल्की थी, उन्हें गरियाता था बैंक में हवा न थी, समाज थासमाज अपनी आदतों में कतई सहनशील न थावह हिकारत से देखता थाऔर देख लिये जाने पर पू¡छ दबाकर कु¡कुआता थावह घर से योजना बनाकर अगर चलता थातो ही विनम्र हो पाता थाअन्यथा इनसानियत के कैसे भी कुदृश्य परसुतून-सा खड़ा रह जाता था बैंक में हवा न थी, सुतून थेकदम-कदम पर तने खड़ेकि जैसे गिलट के सिक्के चिन दिए गए हों एक खिड़की थीजिसके पीछे हवा जोर मार रही थीऔर आगे दो खातेदार हिजड़ेखड़े हवा के लिए लहरा-बल खा रहे थे बैंक में हवा न थीपौरुष से अकड़े सैकड़ों सुतूनऔर नपुंसकता के खाते पर पानी-पानी होतेदो हिजड़े थे,जब मैं पहु¡चा,वे भी जा रहे थे।   {{KKGlobal}}{{KKRachna|रचनाकार=आर. चेतनक्रांति |संग्रह=शोकनाच / आर. चेतनक्रांति}}भगवान का भक्त कृतज्ञ होकर मैंने ईश्वर से डरने का फैसला किया जब बिल्ली अ¡गड़ाई लेकर चलतीजब तीसरी आ¡ख का कैमरा िक्लक करता और अनिष्ट का देवता क्लोजअप में मुस्कुराता जब दूर कहीं से कोई डरावनी आवाजें भेजताजब किताबों में लिखे काले मु¡हवाले शब्दछिपकलियों और तिलचट्टों की तरह पीले पन्नों से निकलतेऔर सरसराकर नीली दीवारों पर फैल जातेमैं ईश्वर का आभार व्यक्त करता कि मुझे कुछ नहीं हुआ संसार वीरता में मस्त थाकण-कण में युद्ध थापाए जा चुके मकसद और हासिल किए जा चुके किले थे जो कहते थे कि रुको मत मैं कृतज्ञता का मोटा कम्बल ओढ़ेकदम-कदम खड़ेभिखारियों को चेतावनी की तरह सुनताहर मिन्दर को शीश नवाताप्रणाम करता हर सफेद चीज कोकहता हुआ कि कृपा है, आपकी कृपा हैगर्दन झुकाए चला जातासबसे घातक भीड़ के भी बीच सेमुस्कुराता हुआबुदबुदाता हुआ–दूर हटो दूर हटो दूर हटो कीड़ों !  {{KKGlobal}}{{KKRachna|रचनाकार=आर. चेतनक्रांति |संग्रह=शोकनाच / आर. चेतनक्रांति}}प्रयाण चलो प्रिये, दिखावा करेंकि दुश्मनअपने दिल की आग में जल मरें सारे कपड़े पहन लोसारी पैंटें सारी शटे±, सारी जूतिया¡ सारी टोपिया¡घर का सब सामान बीनकरसिर पर èार लोझाड़ो घर का कोना-कोनाइक-इक कण सोने काचा¡दी का झोली में भर लोनयी झाडू भी जिसमें चीते की पू¡छ के बाल लगे हैं सबसे ऊपर रखो हािर्दक शुभकामनाए¡दिल की शक्ल में कटी लाल कागज की झंडी रुको, जरा फोन कर लेते हैं सुनिए, हम लोग यहा¡ अष्टभुजा चौराहे पर खड़ेसेल से फोन कर रहे हैंहम आपके यहा¡ दिखावा करने आ रहे थेआपकी तैयारी हो गई है न जी हा¡, जी हा¡ बस ऐसे ही सोचाकि चलो पहले सावèाान कर दें !    {{KKGlobal}}{{KKRachna|रचनाकार=आर. चेतनक्रांति |संग्रह=शोकनाच / आर. चेतनक्रांति}}एक बार फिर करुणामय  मैंने सारा खतरा अपनी तरफ रखाऔर शहर के बीचोबीच खड़े होकर पूछाकि अगर आप चाहें तो बता दें कि सच क्या है लोग मेरे भोलेपन पर चकित हुएऔर ह¡सेऔर कुर्सियों पर पीठ टिकाकर शान्त हो गए  क्योंकि मेरे पास सच को जानने का कोई तरीका नहीं था और क्योंकि उन्हें झूठ से अनेक फायदे थे इसलिएउन्होंने बिल्कुल सच की तरह सहज होकर कहाकि सच तो यही है जो तुम देख रहे हो  मैंने सुना और अपनी हताशा को जाहिर न होने देने के लिए देर तक मशक्कत की कि अगर वे सुकून में चले गए थेतो उन्हें अपने सन्देह का सुराग देना हिंसा थी वह उन्हें उत्तेजना और पीड़ा में ले जाती मैंने खतरे को सहेजकर भीतर रखाप्रलय के अगम कूप को अपने गोश्त से ढा¡पा और ईश्वर से कहा कि चिन्ता मत करो और सबकी तरफ देखकर मुस्कुराया एक अहमक ह¡सीकि वे आश्वस्त रहेंकि डरें नहीं कि उनका झूठ बेपर्दा था कि कोई उन्हें आकर सजा देगा उनके झूठ का रास्ता रोकेगा और ईश्वर से कहा कान मेंकि चलो अभी स्थगित करते हैंकि उन्हें अपनी चालाकीऔर चतुराईऔर कानाफूसीऔर वीरता की तरह बरतनेवालीकायरता से और सफेदीऔर सफाई सेबाहर आते हुए अपनी सीढ़िया¡ उतरने दोकुछ वक्त उन्हें और दो।   {{KKGlobal}}{{KKRachna|रचनाकार=आर. चेतनक्रांति |संग्रह=शोकनाच / आर. चेतनक्रांति}} दस हज़ार की नौकरी और दाम्पत्य जीवन की एक सफल रात अक्सर यह गुम रहती हैपीली, गुलाबी, हरी, नीली या जाने किस रंग की एक लट की तरहउस èाूसर सफेद मेंजो सात रंगों के मन्थन में सबसे अन्त में निकलता हैण्ण्ण्औरसबसे अन्त तक रहता हैण्ण्ण् आप अगर ढू¡ढ़ने निकलें तो इसे नहीं पा सकते लेकिन कभी-कभी अकस्मात् यह घटित हो जाती हैजाहिर है पूर्वजन्मों के सद्कमो± और वर्तमान में अर्जित वस्तुगत आत्मविश्वास की इसमें बड़ी भूमिका होती है यह कहानी ऐसी ही एक गुमशुदा रात की हैजो शाम छ: बजे शुरू हुई, और कुम्हार के चक्के की तरह सुबह छ: बजे तक èाुआ¡èाार चली बेशक जो आपके सामने आए¡गे, वे चित्रा उस रफ्“तार का पता नहीं देते जो अक्सर ठोस और èाारदार चित्राों के पीछे अकेली सिर èाुनती रहती है1आप देख रहे हैंयह एक पत्नी हैसवेरेवाली गाड़ी जिससे छूट गई थीपूरा दिन इसने अभारतीय काम-कल्पनाओंऔर बच्चे के सहारे काटा अब सूरज डूब रहा हैसुबह जिनको जाते देखा थाअब वे आते दिख रहे हैंखुशी-खुशी èाक्का-मुक्की करते हुएवे अपनी जमीनों और गलियों में उतर रहे हैं देखिए पति भी आ रहा हैउसकी कुहनी खंजर है और पीठ ढाललेकिन यह तो रोज ही होता हैआज उसके हाथ में एक तरबूज भी हैगर्मियों का फल जो शीतलता देता हैलेकिन सिर्फ यही नहींनि:सन्देह आज उसके पास कुछ और भी हैदेखिएपत्नी के प्रेमियों सेआज वह जरा भी घबराया नहींसारे उसकी बगल से बिना सिर उठाए गुजर गएवह भी, वह भीण्ण्ण्और वह भी जिसके बिना मुन्ना एक पल नहीं ठहरता 2रात बरसों की सोई भावनाओं की तरह जाग रही हैऔर नींद में छेड़े सा¡प की तरहकुंडली कस रही हैण्ण्ण्पत्नी जैसा कि आप देख ही चुके हैंअभी खू¡टा तुड़ाने पर आमादा थी,èाीरे-èाीरे लौट रही हैण्ण्ण्उसके भीतर उस मुगेZ के पंख एक-एक उतरकरतह जमा रहे हैं जो रोज पिछले रोज से एक फुट ज़्यादा उड़ता हैऔर हवा में मारा जाता है,अगले दिन फिर उड़ता है और फिर मारा जाता है, संकुचित, सलज्ज और बिद्धण्ण्ण्मादा `बाकी कल´ के लिए सुरक्षित होअभी अपने प्रकृति-प्रदत्त नर के लिए तैयार हो रही हैण्ण्ण् देखोपति आज टहल नहीं रहाबैठा घूरता हैउसकी नंगी जा¡घों पर तरबूज और हाथ में चाकू हैआ¡खों में आमन्त्राणजिसे आज कोई नहीं ठुकरा सकताइस आमन्त्राण के बारे में सुनते हैं किजिनके पूर्वजों ने एक हजार साल सतत् त्रााटक किया होण्ण्ण्यह उन्हीं की आ¡खों में होता है पत्नी आखिरी सीढ़ी पर आ चुकी हैबैठती हैवह कंघी से अपने पाप बुहार रही है,जिनको उसनेदिन-भर सोच-सोचकर अर्जित किया थापूणिZमा का चा¡द ठीक ऊपर चक्के की तरह घूम रहा हैघू¡ण्ण्ण्घू¡ण्ण्ण्घू¡ण्ण्ण्पति को छुटपन से चा¡द का शौक रहा हैघूमता चा¡द उसकी आदिम इच्छाओं को जगाया करता है3स्त्राी के भीतर चा¡दनी का ज्वार उठ रहा हैस्वच्छ, èावल, शुभ्र पातिव्रत का कीटाणुनाशक फेनउसकी देह के किनारों सेफकफकाकर उड़ रहा है, जैसे हांडी से दालपुरुष चीखता है और चा¡द को देखकरकहता हैण्ण्ण्शुक्रिया दिल्ली !कहीं कुछ गरज रहा हैमगर यहा¡ शान्ति हैबहुत तेज लहरें हैं औरशीशे की भारी पेंदेवाली नाव èाीरे-èाीरे डोल रही है हवा के खसखसी पर्दे में एक कहानी बू¡द-बू¡द उतर रही है।यह विजयगाथा है पुरुष की पिघले मोम की तरह वह ठहर-ठहरकर उतर रही है और स्त्राी मोटे कपड़े की तरह उसे सोख रही हैण्ण्ण्और वेतन दस हजारमंजू मुझे यकीन था, यकीन है और यकीन रहेगातुम ऐसे नहीं जा सकतींएक िफ्रज और एक कूलर का अभावऔर दिल्ली,हमारे प्यार को नहीं खा सकतेजब तक मैं हू¡हू¡ण्ण्ण्हू¡ण्ण्ण्हू¡ण्ण्ण्हू¡चील की तरह आकाश में पहु¡चीऔर बगुले की तरह हौले-हौले उतरी स्त्राी के ऊपर यह हुंकार बिल्ली का नवजात बच्चाजैसे अपने नंगे, गुलाबी गोश्त से सा¡स लेता हैवैसे ही पत्नीरोमछिद्रों से इसे ग्रहण करती है`नाक, कान और आ¡खये कितनी पुरानी चीजें हैं जीवन के मुकाबले´–वह कहती हैऔर खुल जाती है`सफल पति का प्यार´तारें भरे आसमान में मस्ती से टहलते हुए वहअपने आपसे कहती है`सचमुच इस कालातीत अनुभव के लिए मेरे पास शब्द नहीं हैं, मित्राो´4पूरब में पौ फट रही है औरदिलों में दो-दो नयी, हरी पत्तिया¡ सशंक उठ खड़ी हुई हैंपुरुष सूरज के लाल गोले को जा¡घों पर रखता हैऔर उसमें से एक चौकोर टुकड़ा काटकरपत्नी को देता है ण्ण्ण्चखो, अब यह हमारा है यह सब कुछ हमारा हैस्त्राी का क्षण-क्षण आकार बदलता मांसपति की देह में नए सिरे से जड़ें ढू¡ढ़ता है तरबूज के गूदे से लथपथ दो नंगे बदनगली के ऊपर मु¡डेर पर आते हैंउजली हवा में थरथराते हैंभयभीत जनसाèाारण की पुतलियों में सरसराते हैंऔर एक-दूसरे को ह¡सी देते हुए कहते हैंअब यह सभी कुछ हमारा है  {{KKGlobal}}{{KKRachna|रचनाकार=आर. चेतनक्रांति |संग्रह=शोकनाच / आर. चेतनक्रांति}} सीलमपुर की लड़किया¡ सीलमपुर की लड़किया¡ `विटी´ हो गइ± लेकिन इससे पहले वे बूढ़ी हुई थींजन्म से लेकर पन्द्रह साल की उम्र तकउन्होंने सारा परिश्रम बूढ़ा होने के लिए किया,पन्द्रह साला बुढ़ापाजिसके सामने साठ साला बुढ़ापे की वासनाविनम्र होकर झुक जाती थीऔर जुग-जुग जियो का जाप करने लगती थी यह डॉक्टर मनमोहन सिंह और एमण् टीण्वीण् के उदय से पहले की बात है। तब इन लड़कियों के लिए न देश-देश था, न काल-कालये दोनोंदो कूल्हे थेदो गालऔर दो छातिया¡ बदन और वक्त की हर हरकत यहा¡ आकरमांस के एक लोथड़े में बदल जाती थीऔर बन्दर के बच्चे की तरहएक तरप़+ लटक जाती थी यह तब की बात है जब हौजख़्ाास से दिलशाद गार्डन जानेवालीबस का कंटक्टरसीलमपुर में आकर रेजगारी गिनने लगता था फिर वक्त ने करवट बदलीसुिष्मता सेन मिस यूनीवर्स बनींऔर ऐश्वर्या राय मिस वल्र्डऔर अंजलि कपूर जो पेशे से वकील थींकिसी पत्रिाका में अपने अर्द्धनग्न चित्रा छपने को दे आयींऔर सीलमपुर, शाहदरे की बेटियों केगालों, कूल्हों और छातियों पर लटके मांस के लोथड़ेसप्राण हो उठेवे कबूतरों की तरह फड़फड़ाने लगे पन्द्रह साला इन लड़कियों की हज़ार साला पोपली आत्माए¡अनजाने कम्पनों, अनजानी आवाज़ों और अनजानी तस्वीरों से भर उठींऔर मेरी ये बेडौल पीठवाली बहनेंबुजुर्ग वासना की विनम्रता सेघर की दीवारों सेऔर गलियों-चौबारों सेएक साथ तटस्थ हो गइ± जहा¡ उनसे मुस्कुराने की उम्मीद थीवहा¡ वे स्तब्èा होने लगीं,जहा¡ उनसे मेहनत की उम्मीद थीवहा¡ वे यातना कमाने लगींजहा¡ उनसे बोलने की उम्मीद थीवहा¡ वे सिर्फ अकुलाने लगीं उनके मन के भीतर दरअसल एक कुतुबमीनार निर्माणाèाीन थी उनके और उनके माहौल के बीच एक समतल मैदान निकल रहा था जहा¡ चौबीसों घंटे खट्खट् हुआ करती थी।यह उन दिनों की बात है जब अनिवासी भारतीयों नेअपनी गोरी प्रेमिकाओं के ऊपरहिन्दुस्तानी दुलहिनों को तरजीह देना शुरू किया थाऔर बड़े-बड़े नौकरशाहों और नेताओं की बेटियों नेअंग्रेजी पत्राकारों को चुपके से बताया था किएक दिन वे किसी न किसी अनिवासी के साथ उड़ जाए¡गीक्योंकि कैरियर के लिए यह जरूरी थाकैरियर जो आजादी था उन्हीं दिनों यह हुआकि सीलमपुर के जो लड़केप्रिया सिनेमा पर खड़े युद्ध की प्रतीक्षा कर रहे थेवहा¡ की सौन्दर्यातीत उदासीनता से बिना लड़े ही पस्त हो गएचौराहों पर लगी मूर्तियों की तरहसमय उन्हें भीतर से चाट गयाऔर वे वापसी की बसों में चढ़ लिए उनके चेहरे खू¡खार तेज से तप रहे थेवे साकार चाकू थे,वे साकार शिश्न थेसीलमपुर उन्हें जज्ब नहीं कर पाएगावे सोचते आ रहे थेउन्हें उन मीनारों के बारे में पता नहीं थाजो इèारलड़कियों की टा¡गों में तराश दी गइ± थींऔर उस मैदान के बारे मेंजो उन लड़कियों और उनके समय के बीचजाने कहा¡ से निकल आया थाइसलिए जब उनका पा¡व उस जमीन पर पड़ाजिसे उनका स्पर्श पाते ही èासक जाना चाहिए थावे ठगे से रह गए और लड़किया¡ ह¡स रही थींवे जाने कहा¡ की बस का इन्तजार कर रही थींऔर पता नहीं लगने दे रही थीं कि वे इन्तजार कर रही हैं।   {{KKGlobal}}{{KKRachna|रचनाकार=आर. चेतनक्रांति |संग्रह=शोकनाच / आर. चेतनक्रांति}} हिन्दू देश में यौन-क्रान्ति मदो± ने मान लिया थाकि उन्हें औरतें बा¡ट दी गइ±और औरतों नेकि उन्हें मर्दइसके बाद विकास होना थाइसलिए प्रेम और काम, और क्रोèा और लालसा और स्पद्धाZ, और हासिल करके दीवार पर टा¡ग देने के पवित्रा इरादे के पालने मेंबैठकर सब झूलने लगेपरिवारों में, परिवारों की शाखाओं मेंकुलों और कुटुम्बों में–जातियों-प्रजातियों में विकास होने लगाजंगलों-पहाड़ों कोम्याऊ¡ और दहाड़ों कोरौंदते हुए क्षितिज-पार जाने लगाइतिहास के कूबड़ मेंढेरों-ढेर गोश्त जमा होने लगापत्थर की बोसीदा किताब से उठकर डायनासोर चलने लगा कि यौवन ने मारी लात देश के कूबड़ पर और कहा–रुकें, अब आगे का कुछ सफर हमें दे दें पहले स्त्राी उठीजो सुन्दर चीजों के अजायबघर में सबसे बड़ी सुन्दरता थीऔर कहा, कि पेडू में ब¡èाा हुआ यह नाड़ा कहता हैकि कीमतों का टैग आप कहीं और टा¡ग लें महोदयइस अकड़ी काली, गोल गा¡ठ को अब मैं खोल रही हू¡ सुन्दरता ने असहमति के प्रचार-पत्रा परसोने की मुहर जैसा सुडौल अ¡गूठा छापा और नाम लिखा–अतृप्तिकूबड़ थे जिनमें अकूत èान भरा थाकुए¡ थे जिनमें लालसा की तली कहीं न दिखती थीपर सुन्दरता का दावा न था कि वह इस असमतलता को दूर करेगीइरादों की ऋजुरैखिक यात्राा में वह थोड़ी अलग थीउसने एक नई èारती की भराई शुरू कीजो सितारे की तरह दिखती थीचा¡द की तरहजिसकी मिट्टी में गुरुत्व नहीं थाजिसके ऊपर, नीचे, दाए¡, बाए¡ आसमान थातो भी घर-घर में एक इच्छा जवान होती थीकि बेशक अमेरिका के बाद हीपर एक दिन हम भी वहpoem>
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