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सफेद रात / आलोक धन्वा

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|रचनाकार = आलोक धन्वा
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<poem>
पुराने शहर की इस छत पर
पूरे चांद की रात
याद आ रही है वर्षों पहले की
जंगल की एक रात
पुराने शहर की इस छत पर<br>पूरे जब चांद की रात<br>याद आ रही है वर्षों पहले की<br>के नीचे जंगल की एक रात<br><br>पुकार रहे थे जंगलों को और बारहसिंगे पीछे छूट गए बारहसिंगों को निर्जन मोड पर ऊंची झाडियों मे ओझल होते हुए
जब चांद क्या वे सब अभी तक बचे हुए हैं पीली मिट्टी के नीचे<br>रास्ते और खरहे जंगल पुकार रहे थे जंगलों को<br>महोगनी के घने पेड तेज महक वाली कड़ी घास देर तक गोधूलि ओस रखवारे की झोपड़ी और बारहसिंगे<br>पीछे छूट गए बारहसिंगों को<br>उसके ऊपर सात तारे निर्जन मोड पर ऊंची झाडियों मे<br>पूरे चांद की इस शहरी रात में ओझल होते हुए<br><br>किसलिए आ रही है याद जंगल की रात
क्या वे सब अभी तक बचे हुए हैं<br>छत से झांकता हूं नीचे पीली मिट्टी के रास्ते और खरहे<br>महोगनी के घने पेड<br>तेज महक वाली कड़ी घास<br>देर तक गोधूलि ओस<br>रखवारे की झोपड़ी और<br>उसके ऊपर सात तारे<br>पूरे चांद की इस शहरी आधी रात में<br>किसलिए आ बिखर रही है याद<br>जंगल की रात<br><br>
छत से झांकता हूं नीचे<br>आधी रात बिखर रही है<br><br>दूर-दूर तक चांद की रोशनी
दूर-दूर तक सबसे अधिक खींचते हैं फुटपाथ खाली खुले आधी रात के बाद के फुटपाथ जैसे आंगन छाए रहे मुझमें बचपन से ही और खुली छतें बुलाती रहीं रात होते ही कहीं भी रहूं क्या है चांद की रोशनी<br><br>के उजाले में इस बिखरती हुई आधी रात में एक असहायता जो मुझे कुचलती है और एक उम्मीद जो तकलीफ जैसी है शहर में इस तरह बसे कि परिवार का टूटना ही उसकी बुनियाद हो जैसे न पुरखे साथ आए न गांव न जंगल न जानवर शहर में बसने का क्या मतलब है शहर में ही खत्म हो जाना? एक विशाल शरणार्थी शिविर के दृश्य हर कहीं उनके भविष्यहीन तंबू हम कैसे सफर में शामिल हैं कि हमारी शक्ल आज भी विस्थापितों जैसी सिर्फ कहने के लिए कोई अपना शहर है कोई अपना घर है इसके भीतर भी हम भटकते ही रहते हैं
सबसे अधिक खींचते हैं फुटपाथ<br>खाली खुले आधी रात के बाद के फुटपाथ<br>जैसे आंगन छाए रहे मुझमें बचपन से ही<br>और खुली छतें बुलाती रहीं रात होते ही<br>कहीं भी रहूं<br>क्या लखनऊ में बहुत कम बच रहा है चांद के उजाले में<br>लखनऊ इस बिखरती हुई आधी रात इलाहाबाद में<br>बहुत कम इलाहाबाद एक असहायता<br>जो मुझे कुचलती है कानपुर और बनारस और एक उम्मीद<br>पटना और अलीगढ़ जो तकलीफ जैसी है<br>अब इन्हीं शहरों में शहर में इस कई तरह बसे<br>की हिंसा कई तरह के बाजार कि परिवार का टूटना ही उसकी बुनियाद हो जैसे<br>न पुरखे साथ आए न गांव न जंगल न जानवर<br>शहर में बसने का क्या मतलब है<br>शहर में ही खत्म हो जाना?<br>एक विशाल शरणार्थी शिविर कई तरह के दृश्य<br>सौदाई हर कहीं उनके भविष्यहीन तंबू<br>इनके भीतर इनके आसपास हम कैसे सफर में शामिल हैं<br>इनसे बहुत दूर बम्बई हैदराबाद अमृतसर कि हमारी शक्ल आज भी विस्थापितों जैसी<br>और श्रीनगर तक सिर्फ कहने के लिए कोई अपना शहर है<br>हिंसा कोई अपना घर है<br>और हिंसा की तैयारी इसके भीतर भी हम भटकते ही रहते हैं<br><br>और हिंसा की ताकत
लखनऊ बहस चल नहीं पाती हत्याएं होती हैं फिर जो बहस चलती है उनका भी अंत हत्याओं में बहुत कम बच रहा होता है लखनऊ<br>इलाहाबाद भारत में बहुत कम इलाहाबाद<br>जन्म लेने का कानपुर और बनारस और पटना और अलीगढ़<br>मैं भी कोई मतलब पाना चाहता था अब इन्हीं शहरों में<br>कई तरह की हिंसा कई तरह के बाजार<br>कई तरह के सौदाई<br>इनके भीतर इनके आसपास<br>इनसे बहुत दूर बम्बई हैदराबाद अमृतसर<br>और श्रीनगर तक<br>हिंसा<br>और हिंसा की तैयारी<br>वह भारत भी नहीं रहा और हिंसा की ताकत<br><br>जिसमें जन्म लिया
बहस चल नहीं पाती<br>हत्याएं होती हैं<br>फिर जो बहस चलती क्या है<br>उनका भी अंत हत्याओं इस पूरे चांद के उजाले में होता है<br>भारत इस बिखरती हुई आधी रात में जन्म लेने का<br>मैं भी कोई मतलब पाना चाहता था<br>जो मेरी सांस अब वह भारत भी नहीं रहा<br>जिसमें जन्म लिया<br><br>लाहौर और कराची और सिंध तक उलझती है?
क्या लाहौर बच रहा है इस पूरे चांद के उजाले ? वह अब किस मुल्क में<br>है? इस बिखरती हुई आधी रात न भारत में न पाकिस्तान में<br>जो मेरी सांस<br>न उर्दू में न पंजाबी में पूछो राष्ट्रनिर्माताओं से क्या लाहौर और कराची और सिंध तक उलझती हैफिर बस पाया?<br><br>
क्या लाहौर बच रहा है?<br>जैसे यह अछूती वह अब किस मुल्क में आज की शाम की सफेद रात एक सचाई है?<br>न भारत में न पाकिस्तान में<br>न उर्दू में न पंजाबी में<br>पूछो राष्ट्रनिर्माताओं से<br>क्या लाहौर फिर बस पाया?<br><br>भी मेरी सचाई है
जैसे यह अछूती<br>कहां है वह आज की शाम की सफेद रात<br>हरे आसमान वाला शहर बगदाद एक सचाई है<br>ढूंढो उसे लाहौर भी मेरी सचाई अब वह अरब में कहां है<br><br>?
कहां है वह<br>पूछो युद्ध सरदारों से हरे आसमान वाला शहर इस सफेद हो रही रात मे क्या वे बगदाद<br>ढूंढो उसे<br>अब वह अरब में कहां हैको फिर से बना सकते हैं?<br><br>
पूछो युद्ध सरदारों से<br>वे तो खजूर का एक पेड भी नहीं उगा सकते इस सफेद हो रही रात मे<br>क्या वे बगदाद को फिर से बना तो रेत में उतना भी पैदल नहीं चल सकते हैं?<br>जितना एक बच्चा ऊंट का चलता है ढूह और गुबार से अंतरिक्ष की तरह खेलता हुआ
क्या वे तो खजूर का एक पेड भी नहीं उगा ऊंट बना सकते<br>हैं? वे तो रेत में उतना भी पैदल नहीं चल सकते<br>एक गुम्बद एक तरबूज एक ऊंची सुराही जितना एक बच्चा ऊंट का चलता है<br>सोता जो धीरे-धीरे चश्मा बना एक गली जो ऊंची दीवारों के साए में शहर घूमती थी ढूह और गुबार से<br>गली में अंतरिक्ष की तरह खेलता हुआ<br><br>सिर पर फिरोजी रूमाल बांधे एक लड़की जो फिर कभी उस गली में नहीं दिखेगी
क्या वे एक ऊंट बना सकते हैं?<br>अब उसे याद करोगे एक गुम्बद एक तरबूज एक ऊंची सुराही<br>तो वह याद आएगी एक सोता<br>अब तुम्हारी याद ही उसका बगदाद है जो धीरे-धीरे चश्मा बना<br>एक तुम्हारी याद ही उसकी गली<br>है जो ऊंची दीवारों के साए में शहर घूमती थी<br>उसकी उम्र है और गली में<br>सिर पर उसका फिरोजी रूमाल बांधे एक लड़की<br>जो फिर कभी उस गली में नहीं दिखेगी<br><br>है
अब उसे याद करोगे<br>तो वह याद आएगी<br>अब तुम्हारी याद ही उसका बगदाद है<br>तुम्हारी याद ही उसकी गली है<br>उसकी उम्र है<br>उसका फिरोजी रूमाल है<br><br> जब भगत सिंह फांसी के तख्ते की ओर बढ़े<br>तो अहिंसा ही थी<br>उनका सबसे मुश्किल सरोकार<br>अगर उन्हें कुबूल होता<br>युद्ध सरदारों का न्याय<br>तो वे भी जीवित रह लेते<br>बरदाश्त कर लेते<br>धीरे-धीरे उजड़ते रोज मरते हुए<br>लाहौर की तरह<br>बनारस अमुतसर लखनऊ इलाहाबाद<br>
कानपुर और श्रीनगर की तरह
</poem>
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