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"पाँड़े जी / उदय प्रकाश" के अवतरणों में अंतर
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उस दिन पाँड़े जी | उस दिन पाँड़े जी | ||
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बुलबुल हो गए | बुलबुल हो गए | ||
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कलफ़ लगाकर कुर्ता टाँगा | कलफ़ लगाकर कुर्ता टाँगा | ||
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कोसे का असली, शुद्ध कीड़ों वाला चाँपे का, | कोसे का असली, शुद्ध कीड़ों वाला चाँपे का, | ||
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धोती नयी सफ़ेद, झक बगुला जैसी । | धोती नयी सफ़ेद, झक बगुला जैसी । | ||
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और ठुनकती चल पड़ी | और ठुनकती चल पड़ी | ||
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छोटी-सी काया उनकी । | छोटी-सी काया उनकी । | ||
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छोटी-सी काया पाँड़े जी की | छोटी-सी काया पाँड़े जी की | ||
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छोटी-छोटी इच्छाएँ, | छोटी-छोटी इच्छाएँ, | ||
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छोटे-छोटे क्रोध | छोटे-छोटे क्रोध | ||
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और छोटा-सा दिमाग़ । | और छोटा-सा दिमाग़ । | ||
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गोष्ठी में दिया भाषण, कहा-- | गोष्ठी में दिया भाषण, कहा-- | ||
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'नागार्जुन हिन्दी का जनकवि है' | 'नागार्जुन हिन्दी का जनकवि है' | ||
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फिर हँसे कि 'मैंने देखो | फिर हँसे कि 'मैंने देखो | ||
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कितनी गोपनीय | कितनी गोपनीय | ||
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चीज़ को खोल दिया यों । | चीज़ को खोल दिया यों । | ||
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यह तीखी मेधा और | यह तीखी मेधा और | ||
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वैज्ञानिक आलोचना का कमाल है ।' | वैज्ञानिक आलोचना का कमाल है ।' | ||
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एक स-गोत्र शिष्य ने कहा-- | एक स-गोत्र शिष्य ने कहा-- | ||
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'भाषण लाजवाब था, अत्यन्त धीर-गम्भीर | 'भाषण लाजवाब था, अत्यन्त धीर-गम्भीर | ||
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तथ्यपरक और विशलेषणात्मक | तथ्यपरक और विशलेषणात्मक | ||
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हिन्दी की आलोचना के ख्च्चर | हिन्दी की आलोचना के ख्च्चर | ||
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अस्तबल में | अस्तबल में | ||
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आप ही हैं एकमात्र | आप ही हैं एकमात्र | ||
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काबुली बछेड़े।' | काबुली बछेड़े।' | ||
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तो गोल हुए पाँड़े जी | तो गोल हुए पाँड़े जी | ||
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मंदिर के ढोल जैसे । | मंदिर के ढोल जैसे । | ||
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ठुनुक-ठुनुक हँसे और | ठुनुक-ठुनुक हँसे और | ||
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फिर बुलबुल हो गए | फिर बुलबुल हो गए | ||
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फूल कर मगन ! | फूल कर मगन ! | ||
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23:43, 10 नवम्बर 2009 के समय का अवतरण
उस दिन पाँड़े जी
बुलबुल हो गए
कलफ़ लगाकर कुर्ता टाँगा
कोसे का असली, शुद्ध कीड़ों वाला चाँपे का,
धोती नयी सफ़ेद, झक बगुला जैसी ।
और ठुनकती चल पड़ी
छोटी-सी काया उनकी ।
छोटी-सी काया पाँड़े जी की
छोटी-छोटी इच्छाएँ,
छोटे-छोटे क्रोध
और छोटा-सा दिमाग़ ।
गोष्ठी में दिया भाषण, कहा--
'नागार्जुन हिन्दी का जनकवि है'
फिर हँसे कि 'मैंने देखो
कितनी गोपनीय
चीज़ को खोल दिया यों ।
यह तीखी मेधा और
वैज्ञानिक आलोचना का कमाल है ।'
एक स-गोत्र शिष्य ने कहा--
'भाषण लाजवाब था, अत्यन्त धीर-गम्भीर
तथ्यपरक और विशलेषणात्मक
हिन्दी की आलोचना के ख्च्चर
अस्तबल में
आप ही हैं एकमात्र
काबुली बछेड़े।'
तो गोल हुए पाँड़े जी
मंदिर के ढोल जैसे ।
ठुनुक-ठुनुक हँसे और
फिर बुलबुल हो गए
फूल कर मगन !