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स्वयं विचरते रहे सदा स्वच्छन्द दिशाओं में
 
स्वयं विचरते रहे सदा स्वच्छन्द दिशाओं में
  

14:01, 10 दिसम्बर 2006 का अवतरण

स्वयं विचरते रहे सदा स्वच्छन्द दिशाओं में

हम सबको उलझाये रक्खा नीति-कथाओं में।


हर पीढ़ी में छले गये हम

गुरुओं-प्रभुओं से

जीये भी तो इनके ही

खूंटे पर पशुओं से

घुट-घुट कर रह गयी हमारी चीख गुफाओं में


इन्हीं महन्तों-संतों ने

कठघरा बनाया है

पाप-पुण्य औ स्वर्ग-नरक

इनकी ही माया है

अपने रहते प्रावधान से ये धाराओं में।


हम होते हैं हवन

और ये होता होते हैं

कान फूंकते जहां

वहां हम श्रोता होते हैं

जनम-जनम यजमान सरीखे हम अध्यायों में।


जैसे गोरे वैसे काले

कोई फर्क नहीं

सुनते जाओ करते जाओ

तर्क-वितर्क नहीं

कभी नहीं बर्दाश्त इन्हें अपनी सुविधाओं में।