#REDIRECT [[Category:कविता कोश]]इस पन्ने पर विभिन्न भाषाओं से हिन्दी में अनूदित काव्य संग्रहों का संकलन किया जाएगा। यह पृष्ठ अभी निर्माण की प्रक्रिया में है इसलिये इसके प्रारूप में बदलाव होने की संभावना है। यहाँ अनूदित काव्य-संग्रहो के लिंक नीचे दिये गये प्रारूप में दिये जाएँगे। अनुवादक का नाम काव्य संग्रह के पृष्ठ पर दिया जाएगा। <table align=center border=0 width=100% cellspacing=0 cellpadding=3><tr><td valign="top">==भारतीय भाषाओं से हिन्दी में अनूदित== * '''पंजाबी'''** जब ज़ंजीरें टूटेंगी / पाश** कोई देख रहा है / हरभजन सिंह </td> <td width=20> </td> <td valign="top">==विदेशी भाषाओं से हिन्दी में अनूदित== * '''रूसी'''** [[धूप खिली थी और रिमझिम वर्षा / येव्गेनी येव्तुशेंको]]** [[तेरे क़दमों का संगीत / ओसिप मंदेलश्ताम]]** [[माँ की मीठी आवाज़ / अनातोली परपरा]]** [ दोपहर के अलसाये पल/पाबलो नेरुदा ]</td></tr><table>नेफताली रीकर्डो रेइस या पाबलो नेरुदा का जन्म पाराल , चीले, आर्जेन्टीना मेँ १९०४ के समय मेँ हुआ था.वे दक़्शिण अमरीका भूखँड के सबसे प्रसिध्ध कवि हैँ. उन्हे भारत के श्री रवीम्द्र नाथ ठाकुर की तरह भाषा के लिये,नोबल इनाम सन्` १९७१ मेँ मिला था. पाबलो नेरुदा ने, अपने जीवन मेँ कई यात्राएँ कीँ- रुस, चीन, पूर्वी युरोप की यात्रा के बाद उनका सन्` १९७३ मेँ निधन हो गया था. उनका कविता के लिये कहना था कि, " एक कवि को भाइचारे और एकाकीपन के बीच एवम्` भावुकता और कर्मठता के बीच, व अपने आप से लगाव और समूचे विश्वसे सौहार्द व कुदरत के उद्घघाटनोँ के मध्य सँतुलित रह कर रचना करना जरूरी होता है और वही कविता होती है -- " ( यह मेरा एक नम्र प्रयास है नेरुदा के काव्य का अनुवाद प्रस्तुत है ) : " दोपहर के अलसाये पल " --------------------------------------------------------------------------------------------- तुम्हारी समँदर -सी गहरी आँखोँ मेँ,फेँकता पतवार मैँ, उनीँदी दोपहरी मेँ -उन जलते क्षणोँ मेँ, मेरा ऐकाकीपनऔर घना होकर, जल उठता है - डूबते माँझी की तरहा -लाल दहकती निशानीयाँ, तुम्हारी खोई आँखोँ मेँ,जैसे "दीप ~ स्तँभ" के समीप, मँडराता जल ! मेरे दूर के सजन, तुम ने अँधेरा ही रखातुम्हारे हावभावोँ मेँ उभरा यातनोँ का किनारा --- अलसाई दोपहरी मेँ, मैँ, फिर उदास जाल फेँकता हूँ -- उस दरिया मेँ , जो तुम्हारे नैया से नयनोँ मेँ कैद है ! रात के पँछी, पहले उगे तारोँ को, चोँच मारते हैँ -और वे, मेरी आत्मा की ही तरहा, और दहक उठते हैँ !रात, अपनी परछाईँ की ग़्होडी पर रसवार दौडती है ,अपनी नीली फुनगी के रेशम - सी लकीरोँ को छोडती हुई ! ------------------------------------------------------------------------------------------------- लावण्या