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Kavita Kosh से
बहुत पूछा, मगर, उत्तर न आया,
::अधिक कुछ पूछ्ने में और ड़रते हैं।
असंभव है जहजहाँ कुछ सिद्ध करना,::नयन को मूँद हम विश्वास करते हैं।
::(५)
सोचता हूँ जब कभी संसार यह आया कहाँ से?
चकित मेरी बुद्धि कुछ भी कह न पाती है।
और तब कहता, "हृदय अनुमान तो होता यही है,
घट अगर है, तो कहीं घटकार भी होगा।"
::(६)
रोटी के पीछे आटा है क्षीर-सा,
::आटे के पीछे चक्की की तान है,
उसके भी पीछे गेहूँ है, वृष्टि है,
::वर्षा के पीछे अब भी भगवान है।
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