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{{KKRachna
|रचनाकार=रामधारी सिंह "दिनकर"
|संग्रह=रसवन्ती / रामधारी सिंह "दिनकर"
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<poem>
अरी ओ रसवन्ती सुकुमार !
अरी ओ रसवन्ती सुकुमार !<br><br>लिये क्रीड़ा-वंशी दिन-रात पलातक शिशु-सा मैं अनजान, कर्म के कोलाहल से दूर फिरा गाता फूलों के गान।
लिये कीड़ा-वंशी दिन-रात <br>कोकिलों ने सिखलाया कभी पलातक शिशुमाधवी-सा मैं अनजानकु़ञ्नों का मधु राग, <br> कर्म के कोलाहल से दूर <br>कण्ठ में आ बैठी अज्ञात फिरा गाता फूलों के गान। <br><br>कभी बाड़व की दाहक आग।
कोकिलों ने सिखलाया कभी <br>माधवी-कु़ञ्नों का मधु राग, <br>कण्ठ में आ बैठी अज्ञात <br>कभी बाड़व की दाहक आग। <br><br> पत्तियों फूलों की सुकुमार <br> गयीं हीरे-से दिल को चीर, <br> कभी कलिकाओं के मुख देख <br>
अचानक ढुलक पड़ा दृग-नीर।
तॄणों में कभी खोजता फिरा <br> विकल मानवता का कल्याण, <br> बैठ खण्डहर मे करता रहा <b> कभी निशि-भर अतीत का ध्यान.  श्रवण कर चलदल-सा उर फटा दलित देशों का हाहाकार, देखकर सिरपर मारा हाथ सभ्यता का जलता श्रृंगार. <br/poem>
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