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:::(१)
वह कहती, ’हैं तृण तरु-प्राणी जितने, मेरे बेटा बेटी!’
ऊपर नीला आकाश और नीचे सोना-माटी लेटी!
मैं करवट लेती--ढह जाते हैं दुर्ग, चीन की दीवारें!
हाँ, बुद्धिजीव आदर्शमुग्ध मानव भी मेरी ही कृति है,
पैग़म्बर और सिकन्दर का मुझसे अथ है, मुझमें इति है!
 
मेरे कन-कन पर उडुगन भी वारा करते हिमकण-मोती,
जिनकी सतरंगी गोदी में सिर धर सूरजकिरणें सोतीं!
 
मैं मर्त्यलोक की मिट्टी हूँ, मैं सूर्यलोक का एक अंश;
आती हैं जिस घर से किरणें, है मेरा भी तो वही वंश!’
 
:::(२)
इतने में आया हँस बसन्त, मिट्टी को चूमा--खिला फूल!
थल का बुलबुला फूल जैसे, हँसता समीर में झूल झूल!
 
जिस मिट्टी से जीवन पाया, वह उस मिट्टी को गया भूल,
थल का बुलबुला फूल जैसे, हँसता समीर में झूल झूल?
 
देखा जो तारों को, सोचा--मैं भी उड़ जाऊँ बहुत दूर,
है जहाँ जल रहा नीलम के मंदिर में वह कर्पूर चूर!’
 
तितली को देखा और कहा--’मुझको दे दो दो चटुल पंख’;
मैना आई तो उससे भी उड़ने को माँगे चटुल पंख!
 
फिर आ निकली वन की चिड़िया तिनके चुनने, चुग्गा लेने,
’ले चलो मुझे भी उड़ा कहीं’ यों फूल लगा उससे कहने!
 
चिड़िया की चोंच बसन्ती थी, था फूल गुलाबी रंगभरा,
बस पल में दीखा चिड़िया के मुँह में वह डंठल हरा-भरा!
 
ऊपर था नीला आसमान, दीखी नीचे सोना धरती,
थल का बुलबुला फूल टूटा, पर मिट्टी इसमें क्या करती?
 
आ गिरा धरा पर फूल, मिला मिट्टी में, छिन में हुआ धूल!
जिस मिट्टी से जीवन पाया, था उस मिट्टी को गया भूल!
 
मिट्टी कहती--’मैं सबकुछ सहती रहती हूँ चुपचाप पड़ी,
हिम-आतप में गल और सूख पर नहीं आज तक गली सड़ी!’
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